गुरुवार, 11 अगस्त 2016
सरकारी कामों में पब्लिक दखल,क्या कर्मचारी सुरक्षित हैं?
अक्सर सरकारी दफतरों में यह आम बात हो गई है कि किसी न किसी बात को लेकर कर्मचारियों से बाहरी लोग आकर उलझ पड़ते हैं. इसमें दो मत नहीं कि कतिपय सरकारी कर्मचारी भी अपने रवैये से लोगों को उत्तेजित कर देते हैं किन्तु सभी इस तरह के नहीं होते. सरकारी काम लेकर पहुंचने वाले प्राय: हर व्यक्ति में सरकारी सेवक से गलत व्यवहार करने का ट्रेण्ड चल पड़ा है. देरी से होने वाले काम, सरकारी तोडफ़ोड, सरकार के बिलो केे भुगतान में देरी, रेलवे में बिना टिकिट के दौरान टी ई से झगड़ा और ऐसे ही कई किस्म के मामले उस समय कठिन स्थिति में पहुंच जाते हैं जब सरकारी सेवक अकेला पड़ जाता है और मांग करने वाले या सेवा लने वाले ज्यादा हो जाते हैं फील्ड में काम करने वाला पुलिस वाला भी कभी कभी ऐसे जाल में फंस जाता है कि कभी कभी तो उसे अपनी जान देकर चुकानी पड़ती है. मुठभेड़ या फिर अन्य आपराधिक मामलों को छोड़ भी दिया जाये तो आंदोलन के दौरान कई निर्दोष सिपाही या उनके अफसर भीड़ की चपेट में आकर अपनी जान से हाथ धो बैठते है जिसका खामियाजा उनके परिवार को भुगतना पड़ता है.सरकारी काम को लोग ने उन कर्मचारियों का व्यक्तिगत मामला समझने की भूल कर डाली है शायद इसके पीछे एक कारण सरकारी कामों में भारी ढिलावट और पैसे कमाने का लालच है इसके चलते लोग कर्मचारियों से भिड़ जाते हैं. काम के दौरान सरकारी कर्मचारियों से दुव्र्यवहार या उनपर हाथ उठाना दोनों गैर कानूनी है तथा इसपर कठोर सजा का भी प्रावधान है लेकिन कानून की परवाह न करने वालों की तादात बढती जा रही है.दफतरों में काम लेकर पहुंचने वाला हर व्यक्ति अपने काम का तुरन्त समाधान चाहता है,वे बात करते करते ही बाबुओं या अधिकारी से उलझ पड़ते है. थोड़ा प्रभावशाली या किसी नेता का खास हो तो फिर बात ही मत पूछिये सीधे वह बिना स्लिप दिये अफसर के कमरे में तक पहुंच जाते और बिना कहे कुर्सी पर भी बैठ जाते हैं.पब्लिक से डीलिगं वाले प्राय: हर दफतरों में यह एक आम बात हो गई हैं और इसपर किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं है.कुछ हद तक सरकार स्वंय इस स्थिति के लिये जिम्मेदार है. सरकार के समानांतर चलने वाली प्रायवेट कं पनियों में काम करने वाले कर्मचारियों और सरकारी कर्मचारियों के व्यवहार की अगर तुलना करें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सरकारी कर्मचारियों की बनस्बत प्रायवेट कंपनियों में काम करने वालों का व्यवहार ज्यादा उदार,सरल व संवेदनशील होता है. सर्वाधिक परेशानी आम नागरिकों को सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से होती है जहां कर्मचारी अपने आपकों देश का कर्ताधर्ता से कम नहीं समझते.पब्लिक डीलिंग और पब्लिक बिहेवियर का एक मामला भोपाल की उस घटना में देखने का मिलता है जिसमें महज 1038 रुपए के एक बिजली बिल को लेकर हुए विवाद में एक कांट्रेक्टर ने अपने भतीजे के साथ मिलकर जूनियर इंजीनियर(जेई) का मर्डर कर दिया. बुधवार को दोनों आरोपी बिल ज्यादा आने की बात कहकर क्लर्क से झगड़ रहे थे, शोर सुनकर जेई कमलाकर वराठे 25 साल चैंबर से बाहर निकले पूछा तो दोनों उनसे भिड़ गए वे सद्व्यवहार करते हुए उन्हेंअपने साथ केबिन में ले गये लेकिन बात बिगड़ गई और दोनों ने उन्हें इतना पीटा कि उनकी मौत हो गई.यह सरकारी सेवक तो इस दनिया से चला गया लेकिन उसका छोटा परिवार जिसके लिये वह यह नौकरी क रता था किसके सहारे अपना जीवन यापन करेंगा? यद्यपि बजरिया पुलिस ने आरोपियों को अरेस्ट कर लिया साथ ही सरकारी व्यवस्था में बाहरी व्यक्तियों के प्रवेश तथा कर्मचारियों की सुरक्षा के सबंन्ध में कई सवाल भीी्रखड़े कर दिये. गलतियां दोनों तरफ है और इसका हल भी निकाला जाना जरूरी है.वैसे देखा जाये तो सरकारी व प्रायवेट दोनों कामों में अब आनलाइन समस्या निदान की भरमार हो गई है इससे पब्लिक का सरकारी व प्रायवेट कंपनियों से आमना सामना बहुत हद तक कम हो गया है फिर भी बहुत से ऐसे काम हैं जिनसे सरकारी कर्मचारियों से पब्लिक का सीधा संबन्ध होना जरूरी है जिसमें इलेक्ट्रिक व टेलीफोन बिलों से सबंन्धित मामलों के अलावा बहुत से ऐसे मामले हैं जिनके लिये सरकारी कर्मचारियेां से संपर्क करना जरूरी हो जाता है.ऐसे में भोपाल जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति हो जाये तो आश्चर्य नहीं. सरकार को अपने कर्मचारियों की सुरक्षा के लिये कुछ प्रयास करना जरूरी है जिससे ऐसी घटनाएं कहीं फिर न हो.
सोमवार, 1 अगस्त 2016
...दुष्कर्मियों की कब तक होती रहेगी खातिरदारी?
बुलंदशहर में कार से जा रही मां-बेटी से हाईवे पर गैंगरेप, तीन आरोपी अरेस्ट और पूरा थाना सस्पेंड:...वाह क्या जिम्मेदारी निभाई! उस परिवार पर क्या बीत रही है- जिनको इस कांड के जालिमों ने जन्मभर का दर्द दिया, यही न कि पीडि़तों में से कोई न कोई इस अपमान को वहन न कर पाये और अपने आप को आग के हवाले कर दें, फांसी पर झूल जायें या जहर पी ले. हमारें कानून की खामियां और न्याय मिलने में देरी का ही सबब है कि आज पूरे देश में ऐसे दरिन्दें छुट्टे घूम रहे हैं और किसी न किसी परिवार के सुख चैन को रोज छीन रहे हैं. बुलंदशहर यू पी एनएच-91 के 200 मीटर के हिस्से में गैंगरेप की शिकार मां-बेटी की गले की चेन जैसी कई चीजें खेत में पड़ी मिलीं- यहां एनएच-91 के करीब 35 साल की मां और उसकी 14 साल की नाबालिग बेटी को दरिन्दों ने निर्वस्त्र कर नोैच डाला. 12 लोगों ने जो दरिन्दगी का खेल खेला वह अतीत बन गया और उसके बाद अब अपराधियों को थाने में बिठाकर पूछताछ की जा रही है. बीच बीच में चाय भी पिलाई जा रही है.नाश्ते का भी इंतजाम होगा.अफसरों को रेप की घटना बुरी लगी, उन्होनें पूरा थाना बदल दिया सब सस्पेण्ड! यह सस्पेण्ड नामक सजा वही हैं जिसमें सस्पेण्ड होकर कुछ दिन तक घर में सवेतन छुट्टी मनाता है-यह सब लोग कुछ दिनों बाद दूसरे थानों में नजर आयेंगे. सस्पेडं या लाइन अटैच पुुलिस का एक ट्रेड मार्क बन गया है इस कार्यवाही के सिवा हमारे जिम्मेदार अधिकारी कोई बड़ा कदम उठा भी नहीं सकते-नियम उन्हें इसकी इजाजत नहीं देता. अधिकारी की बात छोडियें सरकार में बैठे लोग भी कुछ नहीं बिगाड़ सकते क्योंकि कानून इसके आगे सिर्फ धीरे चलने की एक प्रक्रिया है जो वर्षाे से ऐसे हीनियस क्राइम के मामले में यूं ही रेंग रही है. आगे आने वाले दिनों में गेंग रेप के आरोपी और पकड़े जायेंगे. कानून उन्हें अदालत में पेश करेगी, पेशी पर पेशी होते- होतेे देश में ऐसे कई बलात्कार हो जायेंगे..कितनी ही अबलाएं लुट जायेंगी कितने ही स्कूल में पडऩे वाली खिलौने से खेलने व पुस्तके पढऩे के दिनों में मां बनकर गोद में अवांछित बच्चे को लेकर अपनी मां से पूछेगी- मां गुडिया या गुड्ढा कैसा लग रहा है?-या यह भी पूछेगंी कि मैरे साथ ऐसा क्यों हो रहा है? ऐसे वाक्ये हुए हैं, .आखिर कब तक यह सब चलता रहेगा.? दिल्ली का निर्भया कांड हो या और वह मामला जिसमें एक पन्द्रह साल की लड़की को आग के हवाले कर दिया गया तथा अन्य अनेक मामले जिनका जिक्र करने की जरूरत नहीं, सब सबके सामने हैं हम कब तक अपराधियों को क्षमा की संस्कृति पर जिंदा रखेंगे. वे हमारे चेहरों पर थप्पड़ मार रहे हैं, थूक रहे हैं... और हम कब तक महात्माओं के वचनों का पालन करते रहेंगे? आज से वर्षो पूर्व भारत की राजधानी में एक अमीर परिवार के दो बच्चों जिसमें एक भाई बहन थे का रंगा बिल्ला नाम के अपराधियों ने रेप व मर्डर किया था तब इसी देश की पुलिस ने फटाफट कार्रवाई कर कुछ ही दिनों में दोनों अपराधियों को फांसी के फंदे पर लटका दिया था.वे अमीर थे उन्हें न्याय मिल गया किन्तु जो गरीब हैं, मध्यम वर्गीय हैं उन्हें दरिन्दे रौंध रहे हैं मार रहे हैं फिर भी हमारा कानून क्यों कठोर नहीं हो रहा? हमारे देश में वर्तमान सरकार के बहुत से वरिष्ठ नेता और वरिष्ठ मंत्री है जिन्होंने विपक्ष में रहकर देश में दुष्कर्मो की घटनाओं पर चिंता व्यक्त करते हुए कठोर से कठोर सजा की मांग कर आंदोलन किया और संसद में तक धूम मचाई अब उसी विपक्ष के लोग सरकार में हैॅ. क्या सरक ारों के समक्ष भी ऐसी कोई बाध्यताएं आड़े आ जाती है जिसमें अपरराधियों को बख्शने या क्षमाधान करने की मजबूरी आ जाती है? इस तरह की संस्कृति का ही परिणाम है कि ऐसे तत्वों के हौसले बुलंदी पर है जो फांसी की सजा प्राप्त करने के बाद भी जेल के भीतर से अपने सुख सुविधाओं की मांग कर रहे हैं. उत्तर प्रदेश के मेरठ रेंज में हुई इस ताजा घटना ने पूरे देश को फिर से हिलाकर रख दिया है. अब तो हाईवे पर फै मली सहित यात्रा करना भी मुश्किल हो गया. इस घटना के तीन आरोपियों को अरेस्ट कर लिया गया है, पीडित परिवार ने इनकी पहचान भी कर ली है. इसके बाद क्या रखा है? तुरन्त फुरन्त में सजा दो और फाइल बंद....वरना यह अपराधी भी जेल की सलाखों के पीछे से अपने कमरे में और सुख सुविधाओं की मांग करेंगे तथा सरकार का खर्चा बढ़ायेंगे. कानून को अपराधी के बारे में पुख्ता सबूत मिलने के बाद तुरन्त थाने में ही न्यायाधीश के सामने ेपेश कर तत्काल उसे अपने किये की सजा का प्रावधान नहीं किया गया तो ऐसे मामलों का निपटारा करते- करते हमारी न्यायपालिका भी थक जायेगी .एक अरब इक्कीस करोड़ की आबादी वाले इस देश में ऐसे तत्वों की संख्या मुश्किल से दो से लेकर पांच प्रतिशत होगी-ऐसे तत्व कम हो जायेंगे तो यह धरती हिलने वाली तो नहीं?. निर्भया कांड से लेकर अब तक नये कानून का स्वरूप भी इन अपराधों को रोकने में कामयाब नहीं हो पायें हैं. हम अब भी अपराध के बाद सस्पेड़ करने, मुआवजा देने,कडी निंदा करने और अन्य प्रक्रियाओं में ही उलझे हैं.कठोर से कठोर कार्रवाही का एक तो उदाहरण र्दो!