हम आज उस घटना का उल् लेख कर लोगों की आंखों का और नम नहीं करना चाहते जिससे गोरखपुर के लोग आज भी सदमेे में हैं चूंकि उनको ऐसा जख्म मिला है जिसपर मरहम लगाना संभव नहीं है लेकिन उस घटना से कम से कम स्वास्थ्य सेवाओं के नाम पर सेवा? देने वालों की आंखें खुल जानी चाहिये कि आखिर आजादी के सत्तर वर्ष बाद भी उन्होंने देश को क्या दिया है? दर्द उसी को होता है जो इसे महसूस करता है बाकी सब सिर्फ संवेदना प्रकट कर रह जाते हैं. गोरखपुर में जो बच्चे दिंवगत हुए हैं उन्होंने तो अभी अपने मां बाप को तक ठीक से पहचाना नहीं होगा लेकिन उनके जाने के गम ने तो दुनिया को ही झकझोर कर रख दिया है. देश तो शर्म से डूबा ही है साथ ही यह घटना हमारे सिस्टम की भी पोल खोलकर रख देता है कि हमारे अस्पताल किस तरह से और किस हाल में काम कर रहे हैं. इस बार कम से कम टेलीवजन के जरिये भी पूरे विश्व ने देख लिया कि हमारे देश में इंसानों की चिकित्सा का क्या हाल है. यूपी तो एक उदाहरण है. देश भर के प्राय: अस्पतालों की व्यवस्था उसी प्रकार -चरमराई हुई है जिस प्रकार गांवों मे बने स्कूल जहां रात में आवारा मवेशी, कुत्ते अन्य जानवर विचरण करते हैं.ऐेसे ही कई अस्पतालों में भी आवारा मवेशी कभी भी घुस जाते हैं. यूपी में पिछली सपा सरकार के समय वहां के स्वास्थ्य मंत्री जब अस्पताल का निरीक्षण कर रहे थे तब अस्पताल के भीतर घुसे एक पशु को भगाते दिखाया गया. ऐसे हालात आज भी अस्पतालों में बने हुए है. जिस अस्पताल में जहां मनुष्यों का इलाज चल रहा हो विशेष सावधानी की जरूरत होती है विशेषकर नन्हे बच्चों के इलाज में तो और भी ध्यान रखने की जरूरत होती है.आक्सीजन व बिजली, पानी की सप्लाई हो रही है या नहीं इसका ख्याल रखने की पूरी जिम्मेदारी उस अस्पताल के एक-एक व्यक्ति की है चूंकि इसी पर मनुष्य का जीवन टिका है फिर ऐसे मामले में गैर जिम्मेदारी बरतने वालों को क्या बख्शा जाना चाहिये? जैसा कि देश में आज तक हुई अन्य कई घटनाओं में भी होता रहा है इस घटना पर भी राजनीति की छाया पड़ चुकी है यहां भी आक्सीजन की सप्लाई करने वालों को बचाने अपने दुपने सब लगे हुए हैं.जापानी बुखार से मासूमों की मौत पर लीपापोती जारी है, लेकिन क्या इससे अस्पताल के ख़स्ताहाल होने पर पर्दा डाला जा सकता है?अस्पताल एक गंदगी और कुत्तों के घूमने के स्थल बने हुए है. परिजन इधर से उधर भटक रहे हैं. मौत से घिरे लोग जिंदगी की तलाश में एक इसी अस्पताल में नहीं कई अन्य अस्पतालों में भी इसी तरह की अलग -अलग समस्याओं से जूझ रहे हैं.आप यह देख कर भी दंग रह गये होगे कि जिन अस्पतालों के आईसीयू में चिकित्सक तक एक या दो अथवा एक छोटी सी टीम घुस सकती है उसी आईसीयू में हमारे देश के नेताओं कार्यकर्ताओं की पूरा फ ौज अपने चमचों के साथ किस तरह बिना ग्लोब्स और मुंह में कुछ बांधे जूते चप्पल पहने घुस जाती हैं और बेचारा नि:सहाय अस्पताल प्रबंधन बेशर्मी से यह कहता है कि वे हमारे जनप्रतिनिधि हैं हम क्या कर सकते हैं? मुझे याद है मैं रायपुर के एम्स के बाहर गेट से काफी दूर खड़ा होकर मोबाइल से अपने मित्र चिकित्सक को चावी देने के लिये बुला रहा था तो मुझे वहां के गार्ड ने यह कहते हुए हटने को कहा कि अस्पताल के साहब की गाड़ी निकलने वाली है जब आम लोगो के लिये इतने सख्त नियम हो तो ऐसे खास लोग जो बीमारों को और बीमार करने की कोशिश में लगे रहते हैं उनके साथ ऐसे सख्त नियम क्यों नहीं लागू करते? देश के अस्पताल और ग्रामीण तथा शहरी स्कूल भवनों की जर्जर हालात पर टिप्पणी करने से कोई फायदा नहीं क्योंकि यह सब जनता की मांग या मर्जी पर नहीं बल्कि सत्तासीन लोगों की कृपा पर निर्भर रहता है. मरीज अस्पतालों में मर जाते हैं तो उन्हें कफन की बात तो छोडिय़े उनकी लाश तक घरवालों को तत्काल सौपंने में कोताही बरती जाती हैं. कोई मां अपने बच्चे की लाश के लिये किसी के पैर पड़ती है तो कहीं कोई अपने कंधे पर लाश को ढोये मीलों चलता है. यह तो उन गरीब बेबस और जिनके पास पैसा नहीं उन लोगों की बात है लेकिन उन प्रभावशाली व पैसे वालों की शान का भी हाल देखिये कि उनके स्वास्थ्य लाभ के लिये ग्रीन कारिडोर बिछा दिया जाता र्है. उस समय कोई दूसरा हार्ट अटैक से पीडि़त या घायल अवस्था पड़ा इंसान जाम में फंसा हो तो उसकी किसी को परवाह नहीं होती,कई परिवारजनों से बहस हो गई तो उसपर कई घाराएं लग जाती है. गोरखपुर जैसी घटना पर आजाद भारत के हर नागरिक को सोचने के लिये विवश कर जाता है कि आखिर कब हमें एक अच्छी स्वास्थ सुविधा मिलेगी?