तुर्की ने अपने लोकतंत्र को बचाया या वो धार्मिक कट्टरता की ओर बढ़ रहा है ?
तुर्की में जो कुछ हुआ उस पर सीधे सीधे कोई राय कायम कर लेना थोड़ी जल्दबाजी होगी ! क्या वास्तव में तुर्की की जनता अपने लोकतंत्र को बचाने के लिए सेना से भिड़ गई ? इस पर भ्रम पैदा हो रहा है तो उसके कारण हैं ! सवाल कई हैं जैसे की किस तरह का लोकतंत्र ?सवाल और भी हैं जिनके जवाब महत्व्पूर्ण हो जाते हैं , वो भी तब जब विश्व एक गांव बन गया हो और उसका बाजार आपस में एक दुसरे से बुरी तरह उलझ गया हो ! ऐसे में सभी बिंदुओं को पहले अलग अलग लिख लिया जाए फिर उनको जोड़ कर पढ़ने का काम कोई भी अपने अपने ढंग से कर सकता है !
तुर्की ,करीब आठ करोड़ की जनसंख्या वाला एक रणनीतिक नाटो सदस्य देश है ! ये दुनिया का अकेला मुस्लिम बहुमत वाला देश है जो कि धर्मनिर्पेक्ष है। ये एक लोकतान्त्रिक गणराज्य है। यूरेशिया में स्थित इस देश का कुछ भाग यूरोप में तथा अधिकांश भाग एशिया में पड़ता है अत: इसे यूरोप एवं एशिया के बीच का 'पुल' कहा जाता है।
आधुनिक तुर्की के निर्माता कमाल मुस्तफा अतातुर्क ने बीसवीं सदी के प्रारम्भ में तुर्की को एक आधुनिक राष्ट्र के तौर पर पहचान दिलाई ! वो मानते थे कि तुर्क धर्मनिरपेक्ष हैं.! इसके बाद इस्लाम से उनका नाता लगभग टूट गया था ! अतातुर्क एक फ़ौजी अधिकारी थे इसलिए सेना के लोग अब भी सोचते हैं कि अतातुर्क ने एक धर्मनिरपेक्ष तुर्की बनाया था इसलिए उनका कर्तव्य है कि इस छवि को बनाकर रखा जाए ! इस तरह सेना तुर्की की धर्मनिरपेक्षता का सबसे बड़ा आधार रही है जो आज भी है !
तुर्की सेना को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का रक्षक माना जाता है जिसकी स्थापना वर्ष 1923 में मुस्तफा कमाल ने की थी। सेना ने वर्ष 1960 के बाद से तुर्की में तीन बार तख्तापलट की कोशिश की और चौथी बार वर्ष 1997 में सेना का कहना था कि देश की राजनीति में इस्लामी सोच हावी होती जा रही है और इसलिए उसका दखल जरूरी है !
वर्तमान राष्ट्रपति अर्दोआन के सत्ता में आने के बाद वहां वैचारिक संघर्ष शुरू हुआ है! अर्दोआन का समर्थन करने वाले लोग तुर्की के दक्षिणी हिस्से एनातोलिया से आते हैं ! यह तुर्की का एशियाई हिस्सा है ! यहाँ के रूढ़िवादी मुसलमानों के समर्थन से ही वो राष्ट्रपति बने थे !
इस बार के विद्रोह में इस्तांबुल में तक़सीम चौराहे पर, बॉस्फ़ोरस पुल पर सेना के बागियों ने पुल बंद कर दिया था और वे अतातुर्क हवाईअड्डे में घुसने की कोशिश कर रहे थे ! तक़सीम चौराहे की सड़क पर तुर्की के राष्ट्रपति रैचेप तैयप अर्दोआन के समर्थक एकसाथ आ जुटे और बागियों को काबू कर लिया ! बॉस्फ़ोरस पुल पर सेना के जवानों को राष्ट्रपति अर्दोआन के समर्थकों ने बेल्ट से पीटा ! भीड़ के गुस्से से उन्हें पुलिस ने बचाया.! बाद में तुर्की के झंडे के साथ लोगों ने वहाँ मार्च किया ! मतलब सरकार को अभी भी जनता के बड़े हिस्से का समर्थन प्राप्त है ! तख़्तापलट की कोशिश के नाकाम होने के बाद लोगों ने खुलकर अपनी ख़ुशियों का इज़हार किया ! इतना की सेना के टैंक के पास युवा सेल्फी लेते रहे !
अपने 13 साल के निरंकुश शासन को मिली रक्तरंजित चुनौती के बाद अर्दोआन ने अपने समर्थकों से कल की तरह किसी भी संभावित अराजकता को रोकने के लिए सड़कों पर जमे रहने का आह्वान किया। पार्टी के समर्थकों ने बड़ी संख्या में क्षंडा लहराते हुए सड़कों पर मार्च किया। अर्दोआन ने लोगों से अपील करने के लिए ट्विटर का सहारा लिया तथा यह सुनिश्चित किया कि उनकी सत्ता को और चुनौती नहीं मिले। उन्होंने इस साजिश के लिए अमेरिका में रहने वाले अपने प्रतिद्वंद्वी धर्मगुरू फतहुल्ला गुलेन को जिम्मेदार ठहराया।
गुलेन उनके धुर विरोधी हैं तथा अर्दोआन ने उन पर हमेशा सत्ता से बेदखल का प्रयास करने का आरोप लगाया। परंतु राष्ट्रपति के पूर्व सहयोगी गुलेन ने इससे इंकार करते हुए कहा कि उनका तख्तापलट की इस कोशिश से कोई लेना देना नहीं है!।तुर्की के प्रधानमंत्री यिलदीरिम ने तो गुलेन को आतंकवादी संगठन का नेता करार देते हुए उसे पनाह देने वाले अमेरिका पर भी निशाना साधा। उन्होंने कहा, उसके पीछे जो भी देश है वह तुर्की का मित्र नहीं है और उसने तुर्की के खिलाफ गंभीर युद्ध छेड़ रखा है। जबकि अमेरिकी विदेश मंत्री जान केरी ने कहा कि यदि तुर्की के पास गुलेन के खिलाफ कोई सबूत है तो वह उसे सौंपे। इसी बीच तुर्की ने उन आठ लोगों के प्रत्यर्पण की मांग की जिनके बारे में समझा जाता है कि वे इस तख्तापलट की कोशिश में शामिल थे और वे यूनान में ब्लैक हॉक सैन्य हेलीकॉप्टर से उतरे।
अर्दोआन के आलोचक उन पर तुर्की की धर्मनिरपेक्ष जड़ों को कमजोर करने और देश को अधिनायकवाद की ओर ले जाने का आरोप लगाते रहे हैं।
पहले भी सेना ने इस्लामिक प्रभाव वाली सरकारों को सत्ता में आने से रोका है ! फ़ौज ऐतिहासिक तौर पर 'कमालिस्ट आइडोलॉजी' की तरफ़ अधिक झुकाव रखती है. जिसका मतलब है इस्लाम को हुकूमत से दूर रखना !वो तुर्की को एक नया, आधुनिक और प्रगतिशील राष्ट्र मानती हैं ! राष्ट्रपति अर्दोअान और उनके बीच थोड़े मतभेद हैं ! इन मतभेद को ही तख्तापलट के रूप में देखा जा रहा है ! सेना की टुकड़ियां सेक्युलर स्थिति चाहती हैं, लेकिन जनता का समर्थन सरकार के पक्ष में अधिक है !
अर्दोअान की पार्टी चुनावों में जीतती आयी है ! और उनकी जीत का प्रतिशत 50 फीसदी से अधिक रहा है ! इसका मतलब है कि जनता के बीच वो काफ़ी ताक़तवर हैं.! ये ठीक है की तख्तापलट कामयाब नहीं हुआ ! लेकिन सेना में इस तरह के अंदरुनी मतभेद ख़तरनाक हैं, क्योंकि सेना की एक टुकड़ी हुकूमत के साथ है और एक उसके ख़िलाफ़ !
खतरा सिर्फ इतना ही नहीं है ! तुर्की पर आईएस और सीरिया के तरफ़ से बाहरी हमले हो रहे हैं ! तुर्की पर शरणार्थीयों का दबाव है ! ये सीरिया से तुर्की आते हैं और यहां से फिर ग्रीस जाते है और वहां से जर्मनी और यूरोप के दूसरे मुल्कों का रूख़ करते हैं ! एक और एंगल रूस का भी है, तुर्की के रूसी हवाई जहाज़ को गिराने के बाद इन दोंनों के बीच के रिश्ते काफ़ी तल्ख़ हो गए हैं !
वैसे तुर्की में बगावत और सेना-सरकार में टकराव की प्रमुख वजह देश का इस्लाम की तरफ झुकाव बढ़ना बताया जा रहा है।अर्दोआन की पार्टी जब से सत्ता में आयी , 2002 में तुर्की के मदरसों में तालिम लेने वाले स्टूडेंट्स की संख्या 65 हजार थी ,अब ये 10 लाख हैं।लेकिन इसके अलावा भी कुछ कारण हैं !जब से अर्दोआन सत्ता में आये ,तब से प्रेसिडेंट अपने पास ही सारे अधिकार रखने की कोशिश में हैं। उन्होंने फ्रीडम ऑफ स्पीच एंड एक्सप्रेशन पर भी बंदिशें लगाई हैं।सत्ता में आते ही उन्होंने ने कई आर्मी अफसरों पर मुकदमे चलाए। इससे आर्मी में असंतोष बढ़ा।
ये सच है की तख्तापलट की कोशिश के पीछे तुर्की मूल के मुस्लिम धर्मगुरु फेतुल्लाह गुलेन का नाम लिया जा रहा है।आरोप है कि उन्होंने इसके लिए सेना के कुछ अफसरों को भड़काया।फेतुल्लाह को तुर्की के खिलाफ काम करने और इस्लाम का गलत प्रचार करने के चलते देश से निकाल दिया गया है। वे 90 के दशक से अमेरिका में रह रहे हैं। गुलेन और उसके सपोर्टर्स ने मिलकर एक मूवमेंट शुरू किया। उनका 100 से ज्यादा देशों में कई स्कूलों का नेटवर्क है !गुलेन इस्लाम के साथ-साथ, डेमोक्रेसी, एजुकेशन और साइंस का खूब सपोर्ट करते हैं।
वर्तमान में तुर्की में धर्म के आधार पर नई पहचान देने का प्रयास वहां हुए संघर्ष का एक अहम कारण है ! तुर्की के सामने जो सबसे बड़ी चुनौती है, वो यह है कि वहां धर्मनिरपेक्षता बचेगी या फिर इस्लामी कट्टरपंथ बढ़ेगी ! इससे सबसे बड़ा ख़तरा वहाँ के ग़ैर-सुन्नी अल्पसंख्यकों को होगा ! इन सब तथ्यों के बीच ये सवाल तो उठता ही है की कही तुर्की एक और कट्टर धार्मिक राष्ट्र बनने की राह पर तो नहीं जा रहा ?