भारत का नाम अंतरिक्ष में पहुंचाने वाले छात्रों को कितने लोग जानते हैं जबकि "भारत तेरे टुकड़े होंगे" , नारा लगाने वाले छात्र घर घर तक पहुंचा दिए गए थे ! रोज शाम को प्राइम टाईम में दिखा दिखा कर जहां कुछ अराजक छात्रों को जाने अनजाने हीरो बना दिया गया था वहीं सकारात्मक और रचनात्मक काम करने वालों को एक मिनट की खबर बना कर पेश कर अब तक भुला भी दिया गया ! जेएनयू पर कितने दिन बहस हुई और कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग पुणे पर कितने दिन ? बस इसका तुलनात्मक अध्धयन ही मीडिया और हमारी मानसिकता को दर्शाता है ! सोशल मीडिया अपने आप को बड़ा दूध का धुला कहता है कितने लाइक और शेयर किए गए होंगे ऐसे पोस्टों को ? क्या कभी इसे टॉप ट्रेंड कराने की किसी ने कोशिश की ? नहीं , बिल्कुल नहीं !
सच कहें तो तकनीक के क्षेत्र में इन भारतीय छात्रों ने अंतरिक्ष विज्ञान में एक नया आयाम हासिल किया हैं ! हर बात पर "रॉकेट साइंस नहीं है " कहने वाले हम इसकी गूढ़ता को समझ सकते हैं ! इसे कोई छोटी उपलब्धि ना समझा जाए ! एक सेटेलाइट को अंतरिक्ष में भेजने के लिए कई तकनीकी चरणों से गुजरना होता है ! लेकिन जिस तरह से इन छात्रों ने चुपचाप इस पूरे काम को सफलता पूर्वक किया , उसे देख कर लगता है कि यह रॉकेट साइंस अब कोई छोटा सा काम हो। युवा की सकारत्मक दृष्टिकोण के साथ साथ अपनी ऊर्जा के सदुपयोग का यह एक उत्तम उदाहरण है !
कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग पूना,के छात्रों द्वारा पूरी तरह से स्वनिर्मित सेटेलाइट 'स्वयम' को 22-जून को अंतरिक्ष में छोड़ा गया। ‘स्वयम’ ‘इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन के रॉकेट PSLV C-34 के द्वारा अंतरिक्ष में प्रक्षेपित (लांच) किया गया ।इन सेटेलाइट्स से जुड़े सभी उपकरण भी छात्रों द्वारा ही बनाए गए ! मात्र 50 लाख में बना ये सेटेलाइट एक पारम्परिक उपग्रह से आकार में काफी छोटा और वज़न में काफी हल्का हैं! स्वयम का वजन केवल 1 किलो ग्राम हैऔर वॉल्यूम मात्र 1000 क्यूबिक सेंटी मीटर ।स्वयम के छोटे आकार की वजह से इसे पिको-सेटलाइट की श्रेणी में रखा गया है।जो एक बाई डायरेक्शनल कम्यूनिकेशन प्लेटफॉर्म पर बनाया गया है और अंतरिक्ष में 500-800 किमी की ऊंचाई से पृथ्वी के चक्कर लगाएगा। इस प्रोजेक्ट को 40 छात्रों की टीम ने 2008 में बनाना शुरू किया था।इस का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में दूरसंचार की व्यवस्था को सुधारना है। सेटेलाइट्स को अंतरिक्ष में भेजे जाने के बाद यह छात्र केवल खुशियां नहीं मना रहे थे। क्यूंकि मिशन यहीं पर ख़त्म नहीं हुआ था।इन सभी सेटेलाइट्स को ग्राउंड स्टेशन से ट्रैक किया जाना है । छात्रों द्वारा बनाए गए मैसेजिंग सिस्टम से धरती पर मौजूद किसी भी ग्राउंड स्टेशन से इन्हे ट्रैक किया जा सकता है।
इसका सबसे रोचक पक्ष है इसमें टीम वर्क का होना ! चूंकि ये करीब 8 साल में बन कर तैयार हो पाया तो यह किसी एक बैच के छात्रों द्वारा नहीं बन सकता ! ऐसे में छात्रों के एक बैच से दूसरे बैच को नेतृत्व और ज्ञान सौंपना जरुरी है।इस तरह से ज्यादा से ज्यादा छात्रों को प्रोजेक्ट में हिस्सा लेने का मौका भी मिल गया ।वाघुलडे जो कि "स्वयम" की टीम के सातवें प्रोजेक्ट मैनेजर हैं खुद बताते हैं कि, “इस प्रोजेक्ट से जुड़ी जानकारियों, इसके ज्ञान और जिम्मेदारियों को अगले बैच को सौंपना सबसे बड़ी चुनौती थी। लेकिन यह पूरा अनुभव बेहद अच्छा रहा ! " इसमें काम करने वाले सभी 176 छात्रों के लिए, एक समर्पित टीम के साथ काम करना , इसरो के वैज्ञानिकों से बात करना और उनसे सीखना , एक सुनहरा अवसर होना चाहिए ।यकीनन यह सभी छात्रों के लिए एक गर्व की बात है और जीवन की शानदार उपलब्धि ।ये छात्रों के उत्साह को बढ़ाने में किस हद तक मददगार होगा इसकी कल्पना आसान नहीं ! इस तरह के अनुभव व्यक्तित्व पर गहरी छाप छोड़ जाते हैं। कुछ नया करने का प्रयास ही वैज्ञानिक सोच को समझने का एक जरिया है।
अंतरिक्ष अनन्त है और अनन्त है इसमें सम्भावनाएं ! भविष्य में स्पेस टेकनोलोजी के ये छात्र छोटे सैटलाइट्स की इंडस्ट्री की शुरुवात भी कर सकते हैं ! भारत का नाम अंतरिक्ष में भी नई ऊचाइयों पर पहुंचेगा , इसमें अब कोई शक नहीं !