सुन रहे हैं की ब्रिटेन ने यूरोपीय संघ से बाहर जाने का फैसला सुनाया है ! लेकिन ये पूरी तरह से अंदर कब था ? 1973 में 28 देशों के संगठन यूरोपियन संघ का हिस्सा तो बना मगर हमेशा शेष यूरोप से आशंकित ही रहा है ! कैसे ? अब आप खुद ही देख लो, शेनजेन वीसा से आप बाकी यूरोपीय देशों में आ जा सकते हो मगर ब्रिटेन में नहीं ! वो इसके लिए कभी तैयार ही नहीं हुआ ! दूसरा, बाकी यूरोपीय देशों ने 'यूरो' को अपना लिया, लेकिन ब्रिटेन ने अपनी मुद्रा पाउंड स्टर्लिंग नहीं छोड़ी ! संक्षिप्त में कहे तो आधा अंदर आधा बाहर रहा ! ये कन्फ्यूज़न इस जनमत में भी है, 52 % मत 'लीव' बाहर जाने वालों ने हासिल किए जबकि 'रिमेन'अंदर रहने वालों को 48 % वोट मिले ! इसे बराबरी की टक्कर कहते हैं !अब सोचो दोनों खेमे को साथ साथ एक ही देश में रहना है तो रोज रोज कितना भारी बवाल होगा ! ये 48% लोग, जिनको शेष यूरोप से मोहब्ब्त है कुढ़ते रहेंगे !असल में दोनों की सोच, विचारधारा , हित टकराएंगे और संकट बना रहेगा !सच कहे तो इस जनमत से ब्रिटेन सिर्फ दो राय में ही नहीं बंटा बल्कि दो भाग में बट चुका है ! राजनीतिक दलों से लेकर सामाजिक धार्मिक संगठन तक दो खेमो में बटें हैं। ब्रिटेन की प्रमुख पार्टियों में भी दरारें पड़ गई हैं.!अगर इन दोनों खेमें की दृष्टि और दृष्टिकोण को देखे तो समझ आएगा की ब्रिटेन एक किस्म के अन्तर्युद्ध से लड़ रहा है जिसके परिणाम दूरगामी होने जा रहे हैं !
यूरोपियन संघ से निकलना चाहने वालों के मतानुसार--
ब्रिटेन की सुस्त अर्थव्यवस्था और बेरोज़गारी सबसे बड़ी समस्या है। ब्रिटेन के इस ग्रुप के नागरिकों को लगता है कि यूरोपियन संघ के देशों के नागरिक उनकी नौकरियां खा रहे हैं, यहाँ तक की ब्रिटेन में रहने वाले बाहर से आए नागरिकों को भी यही लगता है। दूसरा प्रमुख कारण है शरणार्थी समस्या ! ये ग्रुप अपनी कीमत पर अपने घर में किसी बाहरी को शरण देने के खिलाफ है ! उनके मतानुसार अगर यूरोपियन संघ अपने घर में अनचाहें लोगों को शरण देने का शौक रखता है तो रखे, मगर वो इन चक्कर में फसने को तैयार नहीं !
यूरोपियन संघ में बने रहने वालों के मतानुसार--
इस खेमे की प्रमुख दलील थी कि यूरोपियन संघ में बने रहना ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था के लिए ज़्यादा अच्छा रहेगा और इस फायदे के सामने प्रवासियों का मुद्दा बेहद छोटा है! अधिकतर अर्थशास्त्री इस दलील से सहमत हैं.! बात भी ठीक है ,यूरोप ही ब्रिटेन का सबसे अहम बाज़ार है और विदेशी निवेश का सबसे बड़ा स्रोत भी !इन्हीं बातों ने लंदन को दुनिया का एक बड़ा वित्तीय केंद्र भी बनाया !ब्रिटेन का यूरोपियन संघ से बाहर निकलना उसके इस स्टेटस को खतरे में डाल सकता है !फिर भी लोगों ने बाहर जाना चाहा,आखिर क्यों ?
नौकरी देने वाले कारपोरेट की दुनिया चाहती है की वो संघ में रहे मगर वही दूसरी तरफ नौकरी ना मिलने के कारण दूसरा वर्ग अलग होना चाहता है ! क्या गजब खेल है ! प्रधानमंत्री कैमरन ने यूरोपीय संघ में बने रहने की अपील भी की थी कहा था की यदि हम बाहर निकलते हैं तो हमारी अर्थव्यवस्था कमजोर होगी, जबकि यदि बने रहते हैं तो यह मजबूत होगी ! मगर बहुमत को ये बात जमी नहीं ! वो तो कुछ और सोच रहा है ! अमरीका, भारत सहित अनेक राष्ट्रों ने ब्रिटेन को यूरोपियन संघ में रहने की सलाह दी थी ! लेकिन वो विदेशियों की सलाह मानने को तैयार नहीं ! और तो और अभी कुछ दिन पहले विपक्षी लेबर पार्टी की 41-वर्षीय महिला सांसद जो कॉक्स की उत्तरी इंग्लैंड स्थित उन्हीं के संसदीय क्षेत्र में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। कॉक्स ब्रिटेन के यूरोपीय संघ में बने रहने की समर्थक थी । इसका भी कोई भावनात्मक असर नहीं पड़ा ! उल्टा उस हत्यारे ने जो ब्रिटेन फर्स्ट कहा था उसकी भावना की जीत हुई ! इसका मतलब ही है की जनता में आक्रोश है ! आखिरकार क्यों? धुर दक्षिणपंथी यूके इंडीपेंडेंस पार्टी (यूकेआईपी) के नेता नीगेल फेरेज ने बहुत पहले ही जीत की घोषणा करते हुए कहा था, 'यह सपना देखने की हिम्मत दिखाइए कि स्वतंत्र ब्रिटेन में सूर्योदय हो रहा है! ' अरे भाई जिस देश में कभी सूर्य अस्त नहीं होता था वहां अब सूर्योदय की बात हो रही है ! वो अब कह रहे हैं की 23 जून हमारा स्वतंत्रता दिवस होगा.! मतलब आप अब तक गुलाम थे ! किसके ? असल में नाता तोड़ लेने के पक्षधर लोगों की दलील है कि ब्रिटेन की पहचान, आज़ादी और संस्कृति को बनाए और बचाए रखने के लिए ऐसा करना ज़रूरी हो गया है ! ये लोग भारी संख्या में आने वाले प्रवासियों पर सवाल उठा रहे हैं.! उनका यह भी कहना है कि यूरोपियन संघ ब्रिटेन के करदाताओं के अरबों पाउंड सोख लेता है, और ब्रिटेन पर अपने अलोकतांत्रिक' कानून थोपता है.! मतलब सीधे सीधे ये जीत "ब्रिटेन फर्स्ट"की जीत है ! अर्थात एक और "राष्ट्र वाद"!
ब्रिटेन बेचैनी से गुज़र रहा है। मंदी चल रही है। ये बेरोज़गारी लाती है ,जीवन की गति को धीमा करती है। यूरोपियन संघ के देशों की तुलना में ब्रिटेन में ग़रीबी ज्यादा है। ब्रिटेन में असमानता बढ़ रही है। असंतोष बढ़ रहा है। सरकारें जनता के पैसे से हथियार खरीदने बेचने के धंधे में लगी हैं और उसका नागरिक कर्ज के बोझ में जी रहा है।दूसरी तरफ आंतकवाद बढ़ रहा है ! इसके कारण शरणार्थी बढ़ रहे हैं ! इस पूरे कुचक्र को लोग देख भी रहे हैं और समझ भी रहे हैं !ऐसे ग्लोबल दौर में ये राष्ट्रवाद की जीत है ! कारपोरेट की हार है ! यूरोपियन संघ क्या है एक किस्म का कारपोरेट ही तो है धंधे के लिए ! यह धंधे में चाहे जितना कारगर हो मगर यह अपने ही सदस्य देशों की जनता के प्रति जवाबदेह नहीं है। सदस्य देश अपने निर्वाचित सदस्यों में से कुछ को यूरोपियन संघ में भेजते हैं। जिसका का एक प्रेसिडेंट होता है और मंत्रिमंडल भी। एक किस्म की ग्लोबल कारपोरेट सरकार , मगर इसके नियम जो कारपोरेट हित के होते हैं वो सभी सदस्य देशों पर लागू होते हैं।
ये जनमत बताता है की इस धारणा को नए सिरे से सोचने की आवशक्ता है !आखिरकार कौन चलाएगा ब्रिटेन को ? एक चुनी हुई सरकार या यूरोपियन संघ में बैठे वे लोग जिन्हें आप नहीं चुनते ! अभी ये खेल यही नही खत्म हुआ है ! अभी तो और उठापठक होगी !और भी लोग बाहर होना चाहेंगे ! यूरोपियन संघ में असंतोष उभरेगा ! इसमें कोई शक नहीं की अलग होने से ब्रिटेन कमजोर होगा , मगर वहां की जनता अपनी पहचान के लिए अब कुछ सुनने को तैयार नहीं ! यह कारपोरेट की दुनिया को नए ढंग से सोचने के लिए मजबूर करेगा ! यह सामजवाद या वामपंथ की वापसी नहीं बल्कि राष्ट्रवाद का पुनरागमन है ! उधर ट्रम्प के जीतने के आसार बढ़ेंगे ! अंत में, हम भी मात्र दर्शक बन कर नहीं बैठेंगे , आखिरकार हम भी तो अपने अस्तितव और पहचान को लेकर उद्वेलित हैं हमारे यहां भी तो राष्ट्रवाद जीत रहा है ! और आगे भी जीतेगा ! प्रमुख बात है की जिसने हमारे ऊपर 300 साल राज किया उसके बुरे दिन आने वाले हैं, फिर चाहे वो अब यूरोपियन संघ के अंदर रहे या बाहर !