ओम के दिमाग में पता नहीं,कब होश आया? कब विचार कौंधा? उसने अपनी दिनचर्या में उस नगर निगम के वृजेन्द्र स्वरूप पार्क में रोज सुबह शाम टहलने का विचार बनाया। विचार तो नैसर्गिक होते हैं, परमशक्ति की मर्जी होती होगी ?उस पार्क के बीच रास्ते के किनारे पर एक लम्बा-चौड़ा पक्का चबूतरा अभी भी है, उस चबूतरे पर पार्क से लगे हुए आर्य नगर मोहल्ले से उस समय के संभ्रांत व्यक्तियों का समूह आता था और उस चबूतरे पर वे लोग गांशिप के लिए सुबह शाम गोल मेज सम्मेलन के रूप में इकट्ठे होते थे । वे कभी राजनैतिक,आध्यात्मिक, वैचारिक पारिवारिक, ऐतिहासिक और आर्थिक चर्चाएं होती थी कथाकार को तो ज्ञानवर्धक लगता रहा होगा तभी तो उस चबूतरे के पीछे कोने पर बैठ सभा खत्म होने तक सुना करता था , हमें पता है कि ओम भी गांशिप सभा के विसर्जन के बाद पार्क के पीछे गेट के पास लाइब्रेरी में पत्रिकायें,विभिन्न समाचार पत्र पढ़ने चला जाता करता था ।
इससे पहले वह कभी मोहल्ले के पड़ोस में रहने वाले लल्ला, दिनेश हरभजन,दातादीन, रामनरेश,मुनइयां,सरवन और अशोक जैसे हमजोलियों के साथ गुल्ली-डंडा, कबड्डी खेलने के लिए कदम्ब के फल खाने के लिए लम्बे लम्बे पेड़ पर चढ़ने , सी-सा , वर्टिकल और हारिजेन्टल ह्वील का झूला झूलने या तफ़री करने के लिए ही वह वहां चला जाया करता था। जैसे जैसे उम्र बढ़ती गयी, बड़ी कक्षाओं और प्रतियोगिताओं हेतु अध्ययन के साथ और भी अन्य प्रकार की जिम्मेदारी बढ़ी।
ओम का परिवार गरीब था, अतः छ: फुट चौड़े और आठ फुट लम्बे चार इंच मोटे दीवार से बने कमरे पर पड़ी टीन की छत के नीचे गुजर बसर कर रहा था । उसका पिता मिल में किसी की एवज में मजदूरी करते थे , मां भी किसी स्कूल में चपरासिन का काम करती थी एक छोटी बहन थी जो घर के कामों में हाथ बंटाती रहती थी घर में आर्थिक तंगी हमेशा रहती थी, विद्यार्थी ओम को अपने पढ़ाई के साधन जुटाने के लिए हर पल संघर्ष करना पड़ता था । पार्क की तरफ जाने के रुख में बदलाव आया।सुबह घर के रोजमर्रा के अपने हिस्से का काम निपटा कर वह स्वाध्याय हेतु लगभग दिनभर के लिए इसी पार्क में ही "गुलाब का बगीचा" नाम से प्रसिद्ध उद्यान में चला जाया करता था।वह केवल दोपहर का भोजन करने या सायं सार्वजनिक कुएं में से लोहे की बड़ी बाल्टी द्वारा पीने या अन्य कामों के लिए पानी निकाल कर तिमंजिले घर पर चढ़ाने के लिए आता था।
सुबह के समय पार्क के एक हिस्से के कोने पर सर्वोदय मंडल के आचार्य ओ0पी0चतुर्वेदी अपनी संस्था का बैनर गाड़ देते थे और वहां आलम,शोभा, प्रदीप,बेबी, गोलू ,गौतम, भरत,संजय आदि खेलते बच्चों को बुलाकर एक गोले के आकार में बैठाकर कोई खेल खिलाते थे, थोड़ी देर पश्चात कहानी कविता और किस्सों का दौर आता था। उसमें गांधी, विनोबा, विवेकानंद,गोखले और तिलक के संस्मरण भी आचार्य जी सुनाते थे। आधा या पौन घंटा कार्यक्रम चलने के बाद गांधीजी के भजन,भोजन मंत्र,सेवा मंत्र का अभ्यास भी करवाते थे।
1-सेवा के हित जिएं,सेवा के हित खायें।
सेवा करके खांय फिर,सेवा में लग जाएं
2- वैष्णव जन तो तेने कहिए,पीर पराई जाणे रे,,,,
3- दया कर दान भक्ति का हमें परमात्मा देना,
दया करना हमारी आत्मा को शुद्धता देना,
हमारे ध्यान में आओ, हमारे आंखों में बस जाओ,
अंधेरे दिल में आकरके प्रभो ज्योति जला देना।
फिर सभा विसर्जित कर आचार्य सहित सभी बच्चे अपने अपने घर चले जाते।
ओम,उसी कोने के थोड़ी दूर पर एक पेड़ के नीचे रोज खड़े होकर इनकी खेल और स्वस्थ मनोरंजन की क्रिया कलाप को देखता रहता था। मनपसंद होने से उसकी आन्तरिक इच्छा उसमें शामिल होने की होती थी, पर संकोची स्वभाव या कमजोर आर्थिक व्यवस्थाके परिवार से जुड़े होने पर हीन भावना ग्रसित होने के कारण उस समूह में शामिल होने की हिम्मत न जुटा पाता।
समय बड़ा बलवान है,वह भी वो घड़ी आने पर अपना असर दिखाता है। नियति निर्धारित आचार्य जी ने उस लड़के की ओर देखकर बोले कि आओ भाई! तुम खेल के इस गोले में बैठकर शामिल हो जाओ वह उनके आग्रह पर शामिल हो गया और नियमित रूप से समूह के रोज के क्रियाकलापों में भाग लेने लगा।कुछ दिनों बाद वह सर्वोदय मंडल के आफिस जाकर वहां की लाइब्रेरी में रखी सत्साहित्य की पुस्तकों जैसे गांधी जी का वाड़गमय,गोपाल कृष्ण गोखले की जीवनी, विनोबा का गीता प्रवचन,भूदान यज्ञ की साप्ताहिक पत्रिका इत्यादि का अध्ययन करने लगा, इधर पार्क में खेल रहे उपरोक्त बच्चों से उसकी दोस्ती हो गई। परमपिता परमेश्वर ओम का वक्त फिराने वाला था।
"जो विधि लिखा दीवार में होता वही अनुसार"
एक बार संजय के पापा इवनिंग वाक् के लिए पार्क आ रहे थे और ओम उसी रास्ते से घर वापस जा रहा था ,तभी उन्होंने ओम को "गुप्ता जी" सम्बोधित कर पास बुलाया और साथ चलने को कहा उन्होंने उसकी शैक्षिक योग्यता और अन्य वैचारिक चर्चा की और उसी दिन अपने निवास भी ले गये ।शायद कभी संजय और उसकी बहन शोभा ने इशारा करके ओम के बारे में पापा को बताया होगा।
उन्होंने अपने बेटे शरद को कक्षा नवमी की"गणित" के सवालों को समझाने के लिए उसको दो साल के लिए ट्यूटर रखा और बीस रुपये प्रति माह भी दिया। शरद के एक बड़ा भाई सत्येन्द्र भी था शायद वह शरद से एक क्लास आगे था। सभी के नाम 'स' या 'श' से शुरू होते थे सत्येन्द्र,शरद,शोभा और संजय। ओम इनको नाम से सम्बोधन करने में कन्फ्यूज होता था वो या तो सभी को "श" अक्षर से शुरु करता था या 'स' से। जैसे: शत्येन्द,शरद,शोभा और शंजय या
सत्येन्द्र,सरद,सोभा और संजय।
सभी लोग ओम पर हंसते थे पर उनके पापा शांत चेहरे का भाव लिए उन सभी को समझाते थे और हमारा उत्साह बढ़ाते थे।ओम के संघर्ष के दिन तो थे ही, ऐसे में हतोत्साहित करना ठीक उचित नहीं,वे अनुभवी होने के नाते खूब समझते थे। पार्क में सभी एक लोकल फुटबॉल टीम बनाकर खेलते थे, ये सभी ओम को फुटबॉल खेलने के लिए भी आमंत्रित करते थे पर उसको फुटबॉल की साइज़ देखकर उससे खेलने को डरता था,शायद सोचता होगा कि इतने बड़े फुटबाल से सिर में चोट लग जायगी या हाथ ,पैर पर गिरने से हाथ पैर टूट सकते हैं।इस मनोवैज्ञानिक दबाव से निजात देने के लिए एक बार शरद ने ओम के लिए अलग से फुटबॉल को अलग से रखा और उसको हवा में उछाल कर डिमांस्ट्रेट भी किया और कहा कि इसको पैर के पंजे से उठाकर धीर से ऊपर हवा में उछालो,उसने अज्ञात भय लिए पास आकर संभल कर धीरे से ऊपर उछाला। इतना हल्का होकर उछलेगा, इसकी कल्पना ओम ने स्वप्न में भी न की थी।अब उस खेल के प्रति आकर्षण और मनोबल भी बढ़ गया। उस टीम में अरुण एक अच्छा फुटबॉल खिलाड़ी था वह साइड पास,बैक पास, पज़ल ट्रिक का इस्तेमाल करता था।शरद ,ओम को उससे भिड़ने के लिए उकसाता था और उसका निक नेम "हथौड़ा" रख दिया था। वह भी अब उत्साहित होकर खेलता था। अब अरुण भी ओम को अपने घर ले गया और अपने पापा से मिलवाकर अपने छोटे भाई "गुड्डू" के लिए ट्यूटर रखा। उसके पापा भी फुटबॉल के अच्छे खिलाड़ी थे ।अपने कालेज की तरफ से डिस्ट्रिक्ट और स्टेट को रेप्रजेंट किया था।और इसी के बल पर स्थानीय आर्डिनेंस फैक्ट्री में फोरमैन पद पर नौकरी मिली हुई थी। ओम को वक्त के अनुसार इन सभी की बहुत जरूरत थी, सो नियति ने पार्क और पार्क के उस कोने के माध्यम से उपलब्ध कराया था।
वक्त की हर शै गुलाम होती है ,वह दिखाता कुछ है,करता कुछ है, हमें दिखता कुछ है और हो कुछ जाता है।यही अवसर देकर ईश्वर अपनी निकटता, सर्वत्रता का अनुभव कराता है,वह कैसे मददगार और परवरदिगार बनता है,उसका प्रबंध अनिर्वचनीय और अवर्णनीय है,जो हम सभी नत्मस्तक कर देता है। और अस्वरा बन ऐसा उपदेश देता है जिससे हर प्राणी यह जेहन में उतारने को मजबूर हो जाता है।
नष्टो मोह:, स्मृतिर्लब्ध्वा ।
ओम के लिए उसके घर के चहारदीवारी से बाहर चुना गया यह स्थान (जिसमें नियति ने जरूर कोई गूढ़ बात समझी है), शान्त रूप से जन्मे सदाचारित विचार,उस समय के उपलब्ध साधन और माध्यमों ने उसके भविष्य की आधार शिला रख ही दी। इस आधार और हिम्मत के बलबूते ही तो उसने जीवन के पचास वर्षों में आर्थिक क्षेत्र में जो मुकाम हासिल किया,वह असाधारण है। आज उसके पास शिक्षित परिवार के साथ दो से अधिक स्मार्ट जगहों खुद का आवास है और उसके दोनों बच्चों ने केन्द्रीय संस्थानों से उच्च शिक्षा प्राप्त की है जिसके आधार पर एक पुत्र विदेश के चुनिंदा संस्थान में रिसर्च साइंटिस्ट है।शिक्षा के क्षेत्र में विद्यार्थी समुदाय को न केवल शिक्षित करना बल्कि अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय कांफ्रेंस में गणित विषय पर शोध पत्र प्रस्तुत करना और विलक्षण आकाशवाणी में कार्यक्रमों को बना ऐसा बुद्धिजीवी क्लास बनाना जो समाज और देश को आगे बढ़ाने और प्रेरक उदाहरण बन सके जैसे राष्ट्रपति सम्मान प्राप्त आई आई टी का प्रोफेसर, देश और विदेश में चिकित्सा के क्षेत्र में डाक्टर, तकनीकी क्षेत्र में इंजीनियर, पत्रिकारिता के क्षेत्र में लेखक,वैज्ञानिक और दार्शनिक आदि दे रखा है।
मानने की विवशता समझो या परम आवश्यकता,पर सत्य तो यह है कि लाभ दोनों प्रकार से है पर जगन्नियंता के मूक प्रबन्धन और शांत संचालन के प्रति श्रद्धा और उससे भी अधिक गहरा विश्वास मानव के निजी और सामुदायिक जीवन में सकारात्मकता पैदा करता ही है और साथ साथ चाहे कैसा भी हो संघर्ष,उन दिनों के जीवन में जीवटता(अदम्य साहस) भरने की प्रेरणा भी देता है।