याद आता है सतत वह दूसरा जलयान
एक प्रात:काल जिस पर दृष्टि भूली थी
चीर कर पौ के सुनहले आवरण को।
यों लगा, मानो, अँधेरे की हथेली पर
जगमगाता हो हमारा बिम्ब
अथवा अन्य युग कोई
कि कोई दूसरा जीवन समानांतर
जिसे निज में मिला लेना
कि जिसमें लीन हो जाना सुगम हो ।
एक दिन हम थे निकट इतने
कि अपनी डेक पर होकर खड़े
उनके मधुर अभिवादनों की गूँज सुनते थे;
देखते थे उन सहस्रों आननों की रूप-रेखाएँ
धुँधलके में
खड़े जो झिलमिलाते थे समानांतर हमारे
और तब हम मुड़ चले,
मानो, किसी अपराध ने हमको डंसा हो।
किन्तु, अब तो
सिन्धु है फैला हमारे बीच
भग्न आशा के अगम अम्बार-सा ।
मिल नहीं सकते कभी हम,
अब नहीं पूरी कभी होगी दरस की लालसा ।
समानांतरों के आनन सुन्दर होते हैं ।
उनमें स्मिति होती है, होता है सम्मोहन,
और निमन्त्रण-सा भी कुछ यह भाव
कि "तुम भी क्यों न हमारी रेखा पर आ जाते हो?"
निस्सहाय मैं किन्तु, नहीं जागे बढ़ पाता ।
सन्मुख से जा रहीं समानांतर आकृतियां;
मैं उनको देखता और, जानें, सुदूर में
कहाँ-कहाँ मन-ही-मन वायु-सदृश फिरता हूँ।