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साप्ताहिक_प्रतियोगिता

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सिर्फ तन की सुंदरता की ही ना
कमाना
मन को भी तुम निखारना

मेरा परिचय पूछ रहे हो, कैसे मैं पहचान बताऊँ,

खिलते मुरझाते फूलों के, कैसा परिचय पत्र दिखाऊ

चाहत के सफ़र में तू बस चल,

मंजिल की ना आस कर,
सच्चा साथी मिल जायेगा,
तू बस स

मुझ पर खुमारी उसके चाहत की,
शोर में भी एक राहत सी |

दिल के जज्बातों से नही था

वो अनजान,
हमारे हर ख्याल से थी उसको
पहचान,

दिल में हों तुम 
कैसे बताऊं तुम्हे 

ये आंखें ढूंढ़

खुशियां बन जिंदगी मेरे घर आयी है,


आज बड़े दिनों बाद वो लौट आया है ,
लगत

नारी    कि  शक्ति   ना  जानों  तुम,
   

महल के कुछ बाहर बहुत ही भव्य प्रवेशद्वार था जिसपर सदा कुछ सैनिक तैनात रहते थे|

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घर का भेदी बन

विभीषण ने सदा
अपमान ही पाया
मानवता की राह पर
खुद पर

इक ख्याल की तरह उनसे मुलाकात हुई

रात्री के नौ बजे थे , लोग रात्री भोजन के बाद घूमने निकले थे. रमेश भी उनमें से एक था .रोजाना की त

घर का भेदी

घर का भेदी ,

सेनापति वीरभद्र युवराज्ञी भैरवी के पीछे उन्हें ढुंढने निकल पडे पर जंगल बहुत घना था| उन्हें समझ

जो पूछे जीवनसाथी हो कैसा ,

चाहत क्या तुम्हारी,
हो वो किसके जैसा |

कितना कुछ तुम्हे है

बताना,
दिल की कितनी बाते
तुम्हे है सुनना,
कभी

"घर का भेदी"-चौपाई छंद"

घर का भेदी लंका ढाये,
ये बात सोलह आने सच्ची थी।

घर का भेदी बनकर 
तुम ना रिश्तों की मर्यादा
दांव पर लगाना
घर

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