सेनापति वीरभद्र युवराज्ञी भैरवी के पीछे उन्हें ढुंढने निकल पडे पर जंगल बहुत घना था| उन्हें समझ नही आ रहा था कि वो किस दिशा मे जाये|
" कहा है आप युवराज्ञी? "
तभी उनकी नज़र नीचे गिरेे युवराज्ञी के कपडे पर पडी|
"ये तो युवराज्ञी का है! " उन्होने वो उठाया और भैरवी को ढूँढने लगे|
थोडा आगे जाने पर उन्हें भैरवी के कुछ और कपडे मिले|
उनपर खून के धब्बे थे|
"हे भोलेनाथ! हमे क्षमा कर दिजीए!
ये हमने क्या कर दिया! हम तो सपने मे भी नहीं सोच सकते भैरवी को हानी पहुंचाने के बारे मे!
कहाँ है आप भैरवी?
भैरवी! " उनकी आँखों में पानी आ गया| वो युवराज्ञी को आवाज देने लगे|
तभी उन्हे कुछ आवाज सुनाई पडी|
वो पानी की आवाज़ थी|
"हम समझ गए प्रभु! आपका बहुत बहुत आभार!" उसने हाथ जोडकर कहा और थोडा आगे आकर देखा तो झाड़ियों के पीछे पास मे ही एक बहुत बडा गरम पानी का झरना था|
ये आवाज उसी झरने के पानी की थी|
उसके थोडा पास आने पर सेनापति को कुछ और कपडे मिले| उन्होंने आसपास भैरवी को खोजना शुरू किया|
भैरवी उसी झरने के नीचे एक बडे से पत्थर पर बैठकर अपने घाव धो रही थी|
उन्होने वो लुटैरो वाले कपडे उतार दिये थे| झरने के पानी की फुहारों से वो पूरी तरह भीग चुकी थी|
अब उसके शरीर पर बस एक ऑफ शोल्डर ब्लाउज और कमर पर लेहेंगा जैसा कुछ रह गया था|
उनके हाथ पर घाव लगा था| वो उसे ही पानी से धो रही थी| सबके सामने इतनी कठोर दिखने वाली युवराज्ञी एकांत मे रो रही थी|
उन्होने चेहरे पर पानी मारा और उठकर खडी हो गई|
तभी उसे एहसास हुआ की उसकी पीठ पर भी चोट लगी है| उसने वहा हाथ लगाने की सोची पर उसका हाथ ही नही पहुंच रहा था|
वो जिस पत्थर पर खडी थी वो गिला था| इस वजह से अचानक उनका पैर फिसला और वो नीचे झरने के पानी में गिरने ही वाली थी कि सेनापति वीरभद्र ने उनका हाथ पकड लिया|
"कहा था ना हमने आपसे कि हमारे जिंदा रहते हम आपको कभी खुदसे दूर नहीं जाने देंगे! " सेनापती वीर ने उनका हाथ पकडे कहा|
ये सुनकर भैरवी की आँखो से आंसू गिरकर झरने के पानी में घुल गया|
ये देखकर वीर ने भैरवी को जोर से अपनी ओर खींचा|
वो वीर के बेहद करीब आ गई|
वीर ने अपना हाथ उसके कंधे पर लगी चोट पर रखना चाहा पर भैरवी ने उन्हें खुद से दूर धक्का दे दिया|
"हमने कहा था ना आपसे की हमे किसी की सहायता की कोई आवश्यकता नही है! दूर रहिए हमसे!" भैरवी गुस्सेमें बोली|
"ऐसा क्यो कर रही है आप भैरवी? देखिये ना हम वापिस लौट आये हैं! हम पहले भी आप ही के थे और हमेशा आप ही के रहेंगे! हमे खुदसे यू दूर तो ना करीये!" वीर रुआँसा होकर कहने लगे|
"आपसे कोई भूल हो रही है सेनापति वीरभद्र!
आप खुद हमसे दूर गए थ हमने आपको दूर नही किया था और अब जब आप वापिस लौट आये है तो आप चाहते है कि हम भी आपके पास वापिस लौट आये?
याद है ना आपको की आपने क्या किया था हमारे साथ?" भैरवी ने वीर से पूछा| भैरवी की आँखो मे आँसू थे|
उसके सवाल का वीर के पास कोई जवाब नहीं था|
उसने गर्दन नीचे झूका ली| उसकी भी आँख मे पानी आ गया|
ये बात करीब छह माह पहले की है|
महाराज को गुप्तचरो से पता चला कि कंचनप्रदेश नीलमगढ पर आक्रमण की योजना बना रहा है|
तब सेनापति वीरभद्र के साथ विचार विमर्श करके महाराज चंद्रसेन ने तय किया की उनके आक्रमण करने से पहले ही वीरभद्र उनके राज्य मे उन्ही की सेना के बीच घुसकर उनपर आक्रमण कर देंगे|
पर ये योजना सेनापति वीर के लिए प्राणघातक भी साबित हो सकती थी| सिवाय इसके उन्होने इस योजना पर अमल करने की ठानी|
महाराज चंद्रसेन और सेनापति वीरभद्र जानते थे युवराज्ञी भैरवी इस बात के लिए कभी मंजूरी नही देंगी|
इस लिए प्रस्थान की पहली रात ही वीर युवराज्ञी से मिलने गए| वो अपने साथ एक प्याले मे कुछ लेकर आये थे|
उस वक्त युवराज्ञी अपने कक्ष की खिड़की से चाँद को निहार रही थी|
पद्मा उन्ही के पास खडी थी| पद्मा का ध्यान वीर पर गया| पर इससे पहले कि वो भैरवी को बताये उन्होने इशारे से ही पद्मा को बाहर जाने के लिए बोल दिया|
पद्मा धीरे से कमरे से बाहर चली गई|
वीर चुपचाप बिना आवाज किये आये और वो प्याला बिना आवाज किये नीचे रख दिया|
पद्मा ने भी जाते वक्त दरवाजा बंद कर लिया|
वीर भैरवी के पीछे आकर खडे हो गए| इससे पहले की वो भैरवी की आँखो पर हाथ रखे,
"आ गए आप वीर? आइये!" भैरवी ने मुडकर वीर का तरफ देखा| उनके चेहरे पर स्मित था|
"अरररे! आपको हर बार कैसे पता चल जाता है भैरवी की हम आये है?" वीर ने नाक फुलाते हुए कहा|
"आप आये और हमे पता ना चले ऐसा हो ही नही सकता| पता नही कैसे पर आपकी धडकन की आवाज़ दूर से ही सुन सकते हैं हम! आपसे इतना प्रेम जो करते हैं! " भैरवी वीर के गले से लग गयी|
वीर ने भी उतनी ही खुशी से उन्हे अपनी बाहो मे भर लिया| वो रो रही थी|
"भैरवी! आप रो रही है? " वीर ने भैरवी का चेहरा उपर करते पूछा|
"क्या हो गया भैरवी? आप को क्यों रही है? बताइये हमे!" उसका दिल भी भैरवी को रोता देख जोर से धडकने लगा|
"वीर! पता नहीं क्यो? पर हमे ऐसा लग रहा है कि आप हमे खुद से दूर करना चाहते हैं? " वो वीर के गले लगकर और ज्यादा रोने लगी|
ये सुनकर वीर की आँखे भी नम हो गई|
"भैरवी! ऐसा कुछ भी नही है!
हम भला आपको खुद से दूर क्यो करेंगे?
हम तो सपने मे भी ऐसा नही सोच सकते| आप जानती है ना कि आप जान है हमारी और अब आप ही बताइये कि अपनी जान को अपने से दूर करके हम जिंदा कैसे रह पायेंगे?" वीर ने उससे हँसकर पूछा|
वीर की बात पर वो भी हंस पडी|
"हम्म्म्म्म! हमेशा ऐसे ही हसते रहीये| हम हमेशा आपको ऐसे ही देखना चाहते हैं| बहुत प्रेम करते हैं हम आपसे! प्राण है आप हमारी!" वीर ने भैरवी को गले लगा लिया|
"बस अब रोना बंद किजीए और देखिये हम आपके लिए क्या लाये हैं! " वो हाथ पकडकर भैरवी को कक्ष के अंदर लेकर आया|
उसने वो प्याला उठाकर भैरवी के हाथ मे रख दिया|
" ये क्या है वीर? "
"आप खुद पीकर देख लिजीए!
विशेष फलों का रस है! मैने खुद अपने हाथों से बनाया है आपके लिए! बताइये कैसा बना है!" वीर ने भैरवी को वो पीने को कहा|
भैरवी वो देखकर खुश हो गई|
उसने वो पी लिया| पर वीर उसे वो पीता देखकर खुश नही था|
"अरे वाह! ये तो बहुत ही अच्छा था!
हमे बहुत पसंद आया वीर!" वीर ने वो प्याला भैरवी से लेकर नीचे रख दिया और कसकर उसे गले लगा लिया|
"मै बहुत प्रेम करता हूँ तुमसे भैरवी! कभी भी तुम्हें खुद से दूर करना नही चाहूंगा पर अगर कभी भी किसी वजह से मुझे ऐसा करना पडे तो आप मुझे समझने की कोशिश करना!" वीर की आँखे भर आयी|
ये सुनकर भैरवी को कुछ अजीब लगा|
"आप ऐसा क्यों कह रहे हो वीर? क्या बात है?" उसने वीर की बाहे पकडकर पूछा|
पर वीर बस गर्दन झुकाये खडे थे|
"वीर! क्या बात है? आप मुझसे कुछ छिपा रहे हैं! बताइये क्या बात है? बताइये मुझे!" वो पूछ रही थी|
तभी अचानक भैरवी की आँखो के सामने अंधेरा छाने लगा| उसे तो कुछ समझ ही नहीं आ रहा था| उसका सिर चकराने लगा| उसने अपना सिर पकड लिया|
"वीर! वीर! ये मुझे क्या हो रहा है वीर?" भैरवी नीचे गिरने लगी|
पर वीर ने उसे पकड लिया| भैरवी बेहोश हो गई| वीर ने उसे कसकर गले से लगा लिया|
"मुझे माफ कर दिजीये भैरवी!
ये करना आवश्यक था वरना आप मुझे जाने नही देती और ये हमारे राज्य के लिए ठीक नही है| मुझे माफ कर दिजीये! " वो भैरवी के लिपटकर रो रहे थे|
फिर वीर ने खुदको संभाला और भैरवी के मासूम चेहरे की ओर देखा| वो अब पूरी तरह से बेहोश हो चुकी थी|
वीर ने भैरवी को उठाया और बिस्तर पर सुला दिया|
उसकी भैरवी को छोडकर जाने की इच्छा नही हो रही थी पर उसने अपने आप को संभाला और भैरवी को आँख भर कर देख लिया|
"पता नही अब आपको फिर देख पाउंगा या नही पर वादा है हमारा आपसे! अगर हम वापिस लौटेंगे तो केवल आपके लिए!" उसने भैरवी के कोमल हाथ पर अपने होठ टिकाये और वहा से जाने लगा पर भैरवी ने अब भी उसका हाथ पकड रखा था|
उसने बडी मुश्किल से अपना हाथ उससे छुडाया|
सेनापति वीरभद्र उसी रात कंचनप्रदेश के लिए अपने कुछ सैनिको के साथ निकल पडे|
उस रस का असर युवराज्ञी पर 24 घंटे तक रहा| बाद मे जब युवराज्ञी को इस बारे मे पता चला तो उन्हे बहुत दुख हुआ| वो बहुत रोयी| महाराज और अमात्य ने उन्हें समझाने की बहुत कोशिश की पर वो नही मानी|
इस प्रकार छह माह युवराज्ञी ने ज्यादातर जनसेवा और भोलेनाथ के मंदीर मे सेनापति वीर की सलामती की दुआ करने मे ही बिताये|
ये सारा घटनाक्रम युवराज्ञी भैरवी और वीर का आँखो के सामने से कुछ ही पल मे गुजर गया| वो अब भी युवराज्ञी के सामने गर्दन झुकाये ही खडे थे|
"हम जानते थे की आपके पास हमारे किसी भी सवाल का कोई जवाब नही होगा इसलिए चले जाइये यहा से! अब हम आपका चेहरा भी देखना नही चाहते!" ये कहकर भैरवी उस पत्थर से नीचे उतरने ही जा रही थी की उसका पैर फिसला और वो सीधा नीचे झरने के पानी मे गिर गई|
"भैरवी!" वीर जोर से चिल्लाया|
वो भागकर पानी के पास आया पानी का बहाव बहुत ही ज्यादा तेज था और युवराज्ञी भैरवी तैरना नही जानती थी|
बिना कुछ सोचे समझे वीर ने पानी मे छलांग लगा दी| वो भैरवी को पानी में ढूंढने लगे पर वो मिल ही नहीं रही थी|
तब वीर ने एक गहरी साँस भरकर पानी के अंदर तक डुबकी लगाई| उनको भैरवी पानी मे नीचे जाती हुई दिखी|
वीर तैरकर उसतक पहुंचा| उसकी कमर पर अपना एक हाथ रखा और दूसरे हाथ से तैरकर उपर तक आया|
बहुत ही मुश्किल से वीर भैरवी को किनारे पर एक बडे से पत्थर पर लेकर आया|
भैरवी बेहोश हो गई थीट
उसने भैरवी को उठाने की कोशिश की पर वो उठ नही रही थी|
"भैरवी! भैरवी उठीये! उठीये भैरवी!
हे भोलेनाथ! ये तो उठ ही नहीं रही है| अब मै क्या करू?" वो सोचने लगा|
उसने भैरवी के पेट पर जरा दबाव भी डाला ताकि पानी बाहर आ सके पर कुछ नही हुआ| वो डर गया था|
उसने थोडी देर सोचा और भैरवी का नाक दबाकर अपने मुंह से उसके मुँह से साँस भरने लगा| उसने ऐसा 2-3 बार किया|
तब भैरवी के मुंह से पानी बाहर निकला| पर भैरवी होश मे नही आयी|
अब वीर बहुत ज्यादा डर गया| उसे रोना आने लगा|
"भैरवी! भैरवी! उठिये ना! देखिये मै हूँ! आपका वीर!" उसने भैरवी को गले से लगा लिया|
"मुझे माफ कर दिजीये भैरवी! मुझे आपको अकेला छोडकर नही जाना चाहिए था| मुझे माफ कर दिजीये| पर मै करता भी तो क्या? आप जानती है ना कि पिताजी (वीर के पिताजी यानी सेनापति विजयभान) के आखरी समय मे मैने उन्हें वचन दिया था कि हमारे राज्य पर कोई भी संकट आने से पहले मै उसका सामना करूंगा और यही मेरा परम कर्तव्य होगा! तो मै अपना वचन कैसे तोड सकता था भैरवी?
उठीये ना! मुझसे बात करीये! अगर आपको कुछ हो गया तो मै भी ये देह त्याग दुंगा!
मुझे माफ कर दिजीये! मै आपसे बहुत प्यार करता हूँ! मै वादा करता हूँ मै अब आपको कभी भी खुदसे दूर नहीं करूंगा!" वो भैरवी को गले से लगाकर को रहा था|
" वादा? " भैरवी ने पूछा|
भैरवी की आवाज सुनते ही वीर ने रोना बंद किया|
उसने भैरवी का चेहरा अपने हाथों मे लिया|
तब भैरवी ने धीरे से अपनी आँखें खोली|
वो वीर की सारी बाते सुन चुकी थी|
"वादा करीये|" वो कह रही थी|
" हाँ! हाँ मै वादा करता हूँ! मै कभी तुम्हें अकेला नही छोडूंगा| हमेशा तुम्हारे साथ रहूंगा| पर कभी मुझे छोड़कर मत जाना भैरवी| मै आपके बिना जी नही पाउंगा|" वीर ने रोते रोते भैरवी को सीने से लगा लिया|
"आप चिंता मत करीए| मै अगर मर भी गई ना तो आपके लिए वापिस लौट आऊंगी! वादा करती हूँ!" वो भी रोते हुए वीर से लिपट गई|
करीब करीब 6 माह के बाद वीर भैरवी इस तरह एक दूसरे के साथ थे|
इस बार वो मिले थे फिर कभी जुदा ना होने के लिए!
उधर राजमहल मे राजदरबार सज चुका था|
तभी महाराज चंद्रसेन का आगमन हुआ| उनके आगमन पर सारा दरबार उनकी जयजयकार से गूँज उठा|
महाराज के स्थानापन्न होते ही अमात्य उनके समक्ष आये|
उन्होने महाराज को बताया कि सेनापति वीरभद्र राज्य की सीमा मे पहुंच चुके हैं|
ये सुनते ही महाराज बहुत ही ज्यादा खुश हो गए|
"सेनापति वीरभद्र ने हमारे राज्य पर मंडराते सबसे बडे संकट का सामना अकेले ही किया है| उनके स्वागत सत्कार का भव्य आयोजन किया जाये! हम स्वयं युवराज्ञी के साथ मिलकर उनका स्वागत करेंगे!" महाराज बोले|
अमात्य ने उनका कहा अनुमोदित किया|
दरबार मे सेनापति की जयजयकार गूँज उठी|
तभी अमात्य गंभीर मुद्रा मे बोले|
"महाराज आपसे कुछ अत्यंत गंभीर विषय पर चर्चा करनी थी!"
अमात्य की बात सुनकर महाराज समझ गए की कोई ना कोई गंभीर विषय तो अवश्य है|
"महाराज हमने युवराज्ञी भैरवी की कुंडली की ग्रहदशा की जाँच की है और बात चिंता की है| " ये सुनते ही दरबार मे सबके माथे पर चिंता की लकीरें छा गई|
"क्या बात है अमात्य? सब ठीक तो है ना हमारी पुत्री के विषय में?" महाराज चिंता मे बोले|
"महाराज आने वाला कुछ समय युवराज्ञी पर बहुत भारी होने वाला है| इसलिए मुझे लगता है कि हमें युवराज्ञी भैरवी और सेनापति वीरभद्र के विवाह की जल्द से जल्द घोषणा कर देनी चाहिए और अगले माह नवग्रहो की अनुकुल दशा भी है| ये मुहूर्त 60 वर्षों मे केवल एक बार आता है| हमे उसी दिन उनका विवाह संपन्न कर देना चाहिए|" अमात्य कह रहे थे|
"ये तो बहुत ही शुभ बात है अमात्य! एक पिता के जीवन मे अपनी पुत्री के विवाह से बढकर कोई और दिन नही हो सकता!
तो तय रहा! हम जल्द ही एक भव्य समारोह आयोजित करेंगे जिसमे आसपास के कई राज्यो के राजा उपस्थित होंगे उसी समारोह मे हम युवराज्ञी और सेनापति के विवाह की घोषणा करेंगे!" महाराज की ये बात सुनकर दरबार मे चारो ओर महाराज, युवराज्ञी और सेनापति के नाम की जयजयकार होने लगी|
अमात्य भी महाराज के निर्णय से प्रसन्न लग रहे थे| पर अब भी उनके चेहरे पर अजीब सी चिंता साफ दिखाई दे रही थी|
( दरअसल सब लोग युवराज्ञी भैरवी और वीरभद्र के प्रेम संबंधों के विषय मे जानते थे और सब लोग इस विवाह से बहुत खुश भी थे| वीर और भैरवी बचपन से साथ पले बढे थे| वो दोनो एक-दूसरे को बहुत अच्छी तरह से जानते थे| महाराज को वीर कि निष्ठा पर जरा भी संदेह नही था| वो तो केवल इसी बात से खुश थे कि युवराज्ञी के विवाह पश्चात राज्य वीरभद्र के हाथों मे सुरक्षित रहेगा| )
उधर वीर ने भैरवी को उठाया और लेजाकर एक बडे से पत्थर पर बिठा दिया|
"भैरवी! आप यही बैठीये! मै अभी आता हूँ!" वीर भागते हुए जंगल की तरफ़ गए|
"वीर आप कहा जा रहे हैं?
अरे! रुकिये तो!" पर वीर ने भैरवी की बात नहीं सुनी|
भैरवी के जख्म दर्द कर रहे थे|
तभी वीर भागते हुए आये| उसने अपना एक हाथ पीछे छिपा लिया था|
"वीर कहा चले गए थे आप और इतनी देर?
ये पीछे क्या छिपा रहे हो आप? दिखाइये!" भैरवी ने तो सवालो की बौछार ही कर दी|
तभी वीर ने अपने एक हाथ से उसकी कमर पकडकर उसको अपने बहुत ही करीब खिंच लिया| इससे भैरवी थोडी हडबडा गई|
"व्...व्... वीर! ये आप क्या? " वो डरकर पूछ रही थीट
"श्श्श्श!
कितने सवाल करती है आप? अब आप चूप रहीये|" वीर ने भैरवी के होठो पर अपना हाथ रख कर उसकी बात काटते हुए कहा|
वीर ने जैसे ही अपना हाथ भैरवी की भीगी कोमल कमर पर रखा उसी के साथ भैरवी के शरीर पर अजीब सी सरसराहट हो गई| उसने अपनी आँखें बंद कर ली और वीर को कसकर पकड लिया|
उसकी कमर पर भी घाव लगा था| वीर ने अपने हलके हाथ से उसपर कुछ दवा जैसा लगाया| जो शायद उसने जडीबुटीयो के पत्तो से बनाया था|
जैसे ही वीर की उँगलियाँ उसके घाव पर लगने लगी उसने दर्द से आह भर ली और उसने वीर को और भी कसकर पकड लिया|
वीर ने उसे गले से लगा लिया|
फिर उसने धीरे से उसकी पीठ पर लहराते उसके बाल हटाये और वहापर जो चोट लगी थी उसपर भी वो पत्ते लगाये|
"आह्...." भैरवी की आह निकलीट उसकी आँखों से आँसू बहने लगेट
"बस्स! बस्स! हो गया भैरवी!" वीर ने भैरवी को समझाया|
वीर ने भैरवी का चेहरा अपनी हथेलीयों मे लिया|
"आप ठीक हो? "
भैरवी ने बस गर्दन हिलाकर हा कह दिया|
वीर ने फिरसे उसे गले से लगा लिया|
आज वो दोनो बहुत ज्यादा खुश थे| बहुत समय बाद उन्हे एक साथ समय मिला था|
वीर ने फिरसे उसका चेहरा अपने हाथों मे लेकर भैरवी के माथे को चूम लिया और अपने गर्म होठ उसके होठो के बेहद करीब ले गया और धीरे से उसके नर्म होठो पर रख दिये|
भैरवी ने अपनी आँखें बंद कर ली|
उसका हाथ कब वीर के कंधो पर से बालो मे पहुंच गया उसे पता भी नही चला|
कुछ देर एक दूसरे मे खोये रहने के बाद वीर भैरवी से अलग हुआ|
पर भैरवी की आँखें अब भी बंद थी और होठ थरथरा रहे थे|
उसने भैरवी का चेहरा उपर करते हुए कहा|
"भैरवी! आँखे खोलिये!"
पर भैरवी ने मना करते हुए गर्दन हिला दी और अपने दोनो हाथो से अपना चेहरा ढक लिया|
"अररे! आँखे खोलिये! हमारी ओर तो देखिये!"
वीर हसते हुए कहने लगा|
पर भैरवी गर्दन हिलाकर मना कर रही थी|
फिर वीर ने खुद धीरे से उसके दोनो हाथ उसके चेहरे से हटाये| पर भैरवी ने शर्मा कर अपनी पलकें नीचे झूका ली थी|
"देखो तो जरा! हमे नही पता था की नीलमगढ की युवराज्ञी को शरमाना भी आता है!" वीर हसने लगा|
ये सुनकर युवराज्ञी चिढ गई|
"क्या कहा आपने? क्यो? क्या मै युवती नही हू? जो मुझे लज्जा नही आयेगी?" भैरवी ने नाक फुलाते हुए पूछा|
"हमारा मतलब वो नही था| पर...." वीर ने भैरवी को समझाया|
"पर वर कुछ नहीं! जाइये! हमे नही बात करनी आपसे!" भैरवी ने वीर से मुह फेर लिया|
वीर उसे समझाने के लिए उसके पास जा रहा था पर बार बार वो उससे मुह मोड ले रही थी|
अब वीर तंग आ गया|
उसने झट् से भैरवी को अपनी गोद में उठा लिया|
"वीर! वीर ये आप क्या कर रहे हो?" वो हडबडा गई|
"आपने हमसे बात करने से मना किया है| पर हम तो आपसे बात कर सकते हैं ना?" वीर कहने लगा|
"वो सब तो ठीक है पर आपने हमे गोद मे क्यो उठाया है?" उसने पूछा|
"हमने अपनी होने वाली पत्नी को उठाया है| आपको कोई दिक्कत? यदि है भी तो हमे उससे कोई फर्क नहीं पड़ता!" वीर ने भैरवी को बोलने का मौका ही नही दिया|
वो भैरवी को उठाकर अपने बाकी साथीयो के पास जाने लगा|
वो पूरे रास्ते भर भैरवी को गोद मे उठाये उससे बाते करता रहा| भैरवी भी उसकी प्यार भरी बातो से अपना सारा गुस्सा भूल गई और उससे लिपट गई और आँखे बंद करके वीर की बाते सुनने लगी|
वीर को भैरवी के चेहरे पर समाधान के भाव देखकर बहुत खुशी हो रही थी|
सेनापति के सैनिक साथी और पद्मा सहित बाकी दासिया वीर और भैरवी के लिए परेशान थे| पर तभी पद्मा को दूर से ही वीर और भैरवी दिखाई पडे|
वीर भैरवी को अपनी बाहो मे उठाये बडे ही प्यार से उससे बाते करता हुआ आ रहा था|
"वो देखिये! युवराज्ञी जी!" उसने बाकि लोगो को बताया| उन्हे देखकर सब के मन को शांति मिली|
पद्मा भागकर आगे आयी| भैरवी को इस तरह देखकर उसे चिंता हो रही थी|
"सेनापती! ये युवराज्ञी जी........ "
"श्शश..........!" वीर ने पद्मा को चूप करा दिया|
दरअसल भैरवी सो गई थी| वो नही चाहता था कि वो नींद से जाग जाये इसी लिए उसने पद्मा को चूप करा दिया| उसने ये सब उसे इशारे से ही समझा दिया और पद्मा समझ भी गई|
युवराज्ञी भैरवी सेनापति वीर के सानिध्य मे हर प्रकार से सुरक्षित थी|
दूसरी ओर महल में सेनापति के स्वागत का भव्य आयोजन किया गया और उसके बाद होने वाले भव्य समारोह के अतिथीयो के नाम भी राजा ने सोच लिये थे|
उनमे से एक महाराज चंद्रसेन के खास मित्र! संग्रामगढ के महाराज ऋतुराज भी थे!