चिंता संत के जीवन में भी होती है और चिंता संसारी के जीवन में भी होती है मगर दोनों में एक बहुत बड़ा फर्क भी होता है और वो ये कि संत परमार्थ के लिए चिंतित रहता है और संसारी स्वार्थ के लिए।संसारी स्वयं के लिए चिंतित रहता है तो संत समष्टि के लिए चिंतित रहता है।
संसारी भी क्रोध करता है और संत भी क्रोध करता है। संसारी लोभ करता है और संत में भी लोभ देखने को मिल जाता है। संसारी भी अर्जन करता है और संत भी अर्जन करता है। और तो और संसारी अगर संग्रह करता है तो संत भी संग्रह करता है। मगर दोनों में क्रिया भेद शून्य होने के बावजूद भी भावों में जमीन और आसमान जैसा अंतर निहित होता है।
संत का जीवन उस बादल के समान होता है जो समुद्र से अपने में अथाह जल का भंडारण और संग्रह करता हुआ प्रतीत होता है मगर वह अपने पास न रखकर उस जल को जग कल्याण हेतु वर्षा के माध्यम से सर्वत्र वितरित कर देता है।
यदि आपके जीवन में अर्जन है, संग्रह है, लोभ है मगर आप अपने लिए नहीं अपितु दूसरों के लिए जीते हैं। आप उन सभी वस्तुओं का उपयोग स्वार्थ में नहीं अपितु परमार्थ में करते हैं और आप दूसरों की खुशी में ही अपनी खुशी मानते हैं तो सच समझना फिर आप संसार में रहते हुए और संसारी दिखते हुए भी संत ही हैं।