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बोधिसत्त्व

18 फरवरी 2022

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 सिमट विश्व-वेदना निखिल बज उठी करुण अन्तर में, 

देव ! हुंकरित हुआ कठिन युगधर्म तुम्हारे स्वर में । 

काँटों पर कलियों, गैरिक पर किया मुकुट का त्याग 

किस सुलग्न में जगा प्रभो ! यौवन का तीव्र विराग ? 

चले ममता का बंधन तोड़ 

विश्व की महामुक्ति की ओर । 

  

तप की आग, त्याग की ज्वाला से प्रबोध-संधान किया , 

विष पी स्वयं, अमृत जीवन का तृषित विश्व को दान किया । 

वैशाली की धूल चरण चूमने ललक ललचाती है , 

स्मृति-पूजन में तप-कानन की लता पुष्प बरसाती है । 

  

वट के नीचे खड़ी खोजती लिए सुजाता खीर तुम्हें , 

बोधिवृक्ष-तल बुला रहे कलरव में कोकिल-कीर तुम्हें । 

शस्त्र-भार से विकल खोजती रह-रह धरा अधीर तुम्हें , 

प्रभो ! पुकार रही व्याकुल मानवता की जंजीर तुम्हें । 

  

आह ! सभ्यता के प्राङ्गण में आज गरल-वर्षण कैसा ! 

धृणा सिखा निर्वाण दिलानेवाला यह दर्शन कैसा ! 

स्मृतियों का अंधेर ! शास्त्र का दम्भ ! तर्क का छल कैसा
!
 

दीन दुखी असहाय जनों पर अत्याचार प्रबल कैसा ! 

  

आज दीनता को प्रभु की पूजा का भी अधिकार नहीं , 

देव ! बना था क्या दुखियों के लिए निठुर संसार नहीं ? 

धन-पिशाच की विजय, धर्म की पावन ज्योति अदृश्य हुई , 

दौड़ो बोधिसत्त्व ! भारत में मानवता अस्पृश्य हुई । 

  

धूप-दीप, आरती, कुसुम ले भक्त प्रेम-वश आते हैं , 

मन्दिर का पट बन्द देख ‘जय’ कह निराश फिर जाते हैं । 

शबरी के जूठे बेरों से आज राम को प्रेम नहीं , 

मेवा छोड़ शाक खाने का याद नाथ को नेम नहीं । 

  

पर, गुलाब-जल में गरीब के अश्रु राम क्या पायेंगे ? 

बिना नहाये इस जल में क्या नारायण कहलायेंगे ? 

मनुज-मेघ के पोषक दानव आज निपट निर्द्वन्द्व हुए ; 

कैसे बचे दीन ? प्रभु भी धनियों के गृह में बन्द हुए । 

  

अनाचार की तीव्र आँच में अपमानित अकुलाते हैं , 

जागो बोधिसत्त्व ! भारत के हरिजन तुम्हें बुलाते हैं । 

जागो विप्लव के वाक्‌ ! दम्भियों के इन अत्याचारों से , 

जागो, हे जागो, तप-निधान ! दलितों के हाहाकारों से । 

  

जागो, गांधी पर किये गए नरपशु-पतितों के वारों से , 

जागो, मैत्री-निर्घोष ! आज व्यापक युगधर्म-पुकारों से । 

जागो, गौतम ! जागो, महान ! 

जागो, अतीत के क्रांति-गान ! 

जागो, जगती के धर्म-तत्त्व ! 

जागो, हे ! जागो बोधिसत्त्व ! 

  

(१९३४) 

देवधर [बिहार] में महात्मा गांधी पर किये गए प्रहार का उल्लेख।  

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रचनाएँ
इतिहास के आँसू
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रामधारी सिंह 'दिनकर' ' (23 सितम्‍बर 1908- 24 अप्रैल 1974) हिन्दी के एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे। वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं। 'दिनकर' स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद 'राष्ट्रकवि' के नाम से जाने गये।
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मंगल-आह्वान

18 फरवरी 2022
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भावों के आवेग प्रबल  मचा रहे उर में हलचल।     कहते, उर के बाँध तोड़  स्वर-स्त्रोत्तों में बह-बह अनजान,  तृण, तरु, लता, अनिल, जल-थल को  छा लेंगे हम बनकर गान।     पर, हूँ विवश, गान से कैसे  जग

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मगध-महिमा (पद्य-नाटिका)

18 फरवरी 2022
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 दृश्य १  (नालन्दा का खँडहर गैरिक वसन पहने हुए कल्पना खँडहर के  भग्न प्रचीरों की ओर जिज्ञासा से देखती हुई गा रही है।)     कल्पना का गीत     यह खँडहर किस स्वर्ण-अजिर का?  धूलों में सो रहा टूटकर

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इतिहास के गीत

18 फरवरी 2022
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 १  कल्पने! धीरे-धीरे गा!  यह टूटा प्रासाद सिद्धि का, महिमा का खँडहर है,  ज्ञानपीठ यह मानवता की तपोभूमि उर्वर है।  इस पावन गौरव-समाधि को सादर शीश झुका।  कल्पने! धीरे-धीरे गा!     २  मैं बूढ़ा

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दृश्य २

18 फरवरी 2022
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 (उरुवेला की भूमि बरगद के पेड़ के नीचे कृशकायगौतम विराजमान हैं,  सामने सोने की थाल में खीर परोसी हुई है आरतीजल रही है धूप का धुआँ  उठ रहा है सामने सुजाता प्रार्थना कर रही है।)    सुजाता का गीत   

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दृश्य ३

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 (प्रथम दृश्य की आवृत्ति कल्पना खड़ी सुन रहीहै इतिहास नेपथ्य के भीतर से गाता है।)     इतिहास के गीत  १  सुधा-सर का करते सन्धान।  उरुवेला में यहीं कहीं विचरे गौतम गुणवान!  बैठे तरुतल यहीं लगा मु

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दृश्य ४

18 फरवरी 2022
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 (प्रथम दृश्य की आवृत्ति कल्पना खड़ी सुन रही है इतिहास  नेपथ्य के भीतर से गाता है।)     इतिहास के गीत  १  सुधा-सर का करते सन्धान।  उरुवेला में यहीं कहीं विचरे गौतम गुणवान!  बैठे तरुतल यहीं लगा

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दृश्य ५

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(चन्द्रगुप्त का राजदरबार सेल्यूकस, सेल्यूकस की युवती कन्या  और मेगस्थनीज एक ओर बैठे हैं चन्द्रगुप्त, चाणक्य और सभासद्  यथास्थान। चौथे दृश्य वाले नागरिक भी आते हैं।)     एक नागरिक (आपस में कानोंकान

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दृश्य ६

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(प्रथम दृश्य की आवृत्ति सामने कल्पना खड़ी सुन रही  है नेपथ्य के भीतर से इतिहास गाता है।)     इतिहास के गीत     १  कल्पने! तब आया वह काल।  उठा जगत में धर्म-तिलक-दीपित भारत का भाल  फिलस्तीन, ईरा

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दृश्य ७

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 (कलिंग की युद्धभूमि लाशों से पटी हुई धरती पर फीकी चाँदनीफैली हुई है घायल कराह रहे हैं, रह-रह कर पानी! पानी! की आवाजआती है। एक ओर जरा ऊॅंची जमीन पर मगध की राजपताका निष्कम्प  झुकी हुई है, मानों, वह शर

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दृश्य ८

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(प्रथम दृश्य की आवृत्ति कल्पना खड़ी सुन रही है  नेपथ्य के भीतर से इतिहास है गाता।)    इतिहास के गीत    १  कल्पने! जीवन के उस पार।  चमक उठा आँखों के आगे एक नया संसार।  प्राणों की जब सुनी प्राण

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पाटलिपुत्र की गंगा से

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संध्या की इस मलिन सेज पर  गंगे ! किस विषाद के संग,  सिसक-सिसक कर सुला रही तू  अपने मन की मृदुल उमंग?     उमड़ रही आकुल अन्तर में  कैसी यह वेदना अथाह ?  किस पीड़ा के गहन भार से  निश्चल-सा पड़ ग

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मिथिला

18 फरवरी 2022
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मैं पतझड़ की कोयल उदास,  बिखरे वैभव की रानी हूँ  मैं हरी-भरी हिम-शैल-तटी  की विस्मृत स्वप्न-कहानी हूँ।     अपनी माँ की मैं वाम भृकुटि,  गरिमा की हूँ धूमिल छाया,  मैं विकल सांध्य रागिनी करुण, 

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वैशाली

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ओ भारत की भूमि वन्दिनी! ओ जंजीरोंवाली!  तेरी ही क्या कुक्षि फाड़ कर जन्मी थी वैशाली?     वैशाली! इतिहास-पृष्ठ पर अंकन अंगारों का,  वैशाली! अतीत गह्वर में गुंजन तलवारों का।     वैशाली! जन का प्रत

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बोधिसत्त्व

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 सिमट विश्व-वेदना निखिल बज उठी करुण अन्तर में,  देव ! हुंकरित हुआ कठिन युगधर्म तुम्हारे स्वर में ।  काँटों पर कलियों, गैरिक पर किया मुकुट का त्याग  किस सुलग्न में जगा प्रभो ! यौवन का तीव्र विराग ? 

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कलिंग-विजय

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(1)  युद्ध की इति हो गई; रण-भू श्रमित, सुनसान;  गिरिशिखर पर थम गया है डूबता दिनमान--     देखते यम का भयावह कृत्य,  अन्ध मानव की नियति का नृत्य;     सोचते, इस बन्धु-वध का क्या हुआ परिणाम?  विश्

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वसन्त के नाम पर

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 १.  प्रात जगाता शिशु-वसन्त को नव गुलाब दे-दे ताली।  तितली बनी देव की कविता वन-वन उड़ती मतवाली।     सुन्दरता को जगी देखकर,  जी करता मैं भी कुछ गाऊॅं;  मैं भी आज प्रकृति-पूजन में,  निज कविता के

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वैभव की समाधि पर

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हँस उठी कनक-प्रान्तर में  जिस दिन फूलों की रानी,  तृण पर मैं तुहिन-कणों की  पढ़ता था करुण कहानी।     थी बाट पूछती कोयल  ऋतुपति के कुसुम-नगर की,  कोई सुधि दिला रहा था  तब कलियों को पतझर की।   

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