१
कल्पने! धीरे-धीरे गा!
यह टूटा प्रासाद सिद्धि का, महिमा का खँडहर है,
ज्ञानपीठ यह मानवता की तपोभूमि उर्वर है।
इस पावन गौरव-समाधि को सादर शीश झुका।
कल्पने! धीरे-धीरे गा!
२
मैं बूढ़ा प्रहरी उस जग का
जिसकी राह अश्रु से गीली,
मुरझा कर ही जहाँ शरण
पाती दुनिया की कली फबीली।
डूब गई जो कभी चाँदनी
वही यहाँ पर लहराती है,
उजड़े वन, सूखे समुद्र,
डूबे दिनमणि मेरी थाती हैं।
मैं चारण हूँ मृतक विश्व का,
सब इतिहास मुझे कहते हैं,
सिंहासन को छोड़ लोग
मेरे घर आते ही रहते हैं।
धूलों में जो चरण-चिह्न हैं,
पत्थर पर जो लिखी कभी है,
मुझे ज्ञात है, इस खँडहर के
कण-कण में जो छिपी व्यथा है।
ईंटों पर जिनकी लकीर,
पत्थर पर जिनकी चरण-निशानी
जिनकी धूल गमकती मह-मह,
उन फूलों की सुनो कहानी।
यहीं मगध में कहीं एक थी
उरुवेला वनभूमि सुहावन,
जिसे देख रम गया तपस्या में
गौतम सन्यासी का मन।
छह वर्षों तक घोर तपस्या की,
पर, तत्व नहीं लख पाये,
अमृत खोजने को निकले थे,
पर, तप से न उसे चख पाये।
कृश हो गई देह अनशन से,
अति दुष्कर तप करते-करते,
रही अस्थि भर शेष, तथागत,
बचे किसी विधि मरते-मरते।
बरगद के नीचे बैठे थे
सोच रहे, अब कौन राह है,
तप से शक्ति क्षीण होती है,
सम्मुख यह सागर अथाह है।
ऐसे में, ले स्वर्ण-पात्र में
पावन खीर सुजाता आई,
वट-वासी देवता - सदृश
उसको कृश गौतम पड़े दिखाईं।
अंचल से पद पोंछ, चढ़ा कर
धूप, दीप, अक्षत, फल, रोली,
सम्मुख थाल परोस, देवता से
कर जोड़ सुजाता बोली।
(पट-परिवर्तन)
(सुजाता ने अपने ग्राम के वट-देवता से यह मांगा था कि अगर
मुझे पुत्र रत्न की प्राप्ति हो तो मैं तुझे खीर खिलाऊँगी।
उसे पुत्र हुआ और जिस दिन वह वटवृक्ष की खीर चढ़ाने वाली थी, ठीक
उसी दिन, गौतम उसी वृक्ष के नीचे आ विराजमान हुए, जिससे
सुजाता ने यह समझा कि वट-देवता ही देह धरकर वृक्ष के नीचे
बैठ गये हैं।)