(उरुवेला की भूमि बरगद के पेड़ के नीचे कृशकाय
गौतम विराजमान हैं,
सामने सोने की थाल में खीर परोसी हुई है आरती
जल रही है धूप का धुआँ
उठ रहा है सामने सुजाता प्रार्थना कर रही है।)
सुजाता का गीत
हमारे पूरे ज्यों मन-काम।
पूर्ण करें वट-देव! तुम्हारी भी इच्छा त्यों
राम।
हमारे पूरे ज्यों मन-काम।
जैसे आसमान में तारे,
फूलें त्यों संकल्प तुम्हारे,
अन्धकार में उगो, देवता! तुम शशि-सूर्य-समान।
जग को स्नेह-सलिल से सींचो,
जीव-जीव पर अमृत उलीचो,
रहे उजागर नाम तुम्हारा देश-देश, प्रति धाम।
भरी गोद मेरी यह जसे,
पूर्णकाम तुम भी हो वैसे,
मिला मुझे ज्यों तोष देव! त्यों मिले तुम्हें उपराम।
हमारे पूरे ज्यों मन-काम।
(सुजाता की यह शुभैषणा पूर्णरूप से चरितार्थ
हुई, क्योंकि उसी की
खीर खाने के बाद बोधि वृक्ष के नीचे गौतम ने
वह गहरी समाधि
लगाई जिसमें उन्हें बुद्धत्व प्राप्त हुआ। कहते
हैं, सुजाता के मुख से
यह आशीर्वाद सुनकर भगवान अत्यन्त प्रसन्न हुए
और उन्होंने कहा
कि जब तक तुम-सी भोली नारि मौजूद है, तब तक
मुझे भी सफलता
की आशा है।)
गौतम का गीत
तुम्हारे हाथों की यह खीर।
माँ! बल दे, मैं तोड़ सकूँ भव की दारुण जंजीर।
तुम्हारे हाथों की यह खीर।
यहाँ जन्म से मरण-काल तक केवल दुख-ही-दुख है,
वह भी है निस्सार, दीखता जहाँ-तहाँ जो सुख है।
फूलों-सा दो दिन हॅंसकर झर पड़ता मनुज-शरीर।
तुम्हारे हाथों की यह खीर।
मैं हूँ कौन? कौन तुम? हम दोनों में क्या नाता है?
खेल-खेल दो रोज, मनुज फिर चला कहाँ जाता है?
सता रहे हैं मुझे, जननि! ये प्रश्न गहन-गंभीर।
तुम्हारे हाथों की यह खीर।
खोज रहा हूँ जिसे, अमृत की अगर मिली वह धार,
नर के साथ देवताओं का भी होगा उद्धार।
हैं जल रहे अदृश्य आग में तीनों लोक अधीर।
तुम्हारे हाथों की यह खीर।
रवि-सा उगूँ तिमिर में, सच ही, यह मेरी अभिलाषा,
आज देखकर तुम्हें विजय की हुई और दृढ़ आशा।
आशिष दो, ला सकूँ जगत के मरु में शीतल नीर।
तुम्हारें हाथों की यह खीर।
(पट - परिवर्तन)