(कलिंग की युद्धभूमि लाशों से पटी हुई धरती पर फीकी चाँदनी
फैली हुई है घायल कराह रहे हैं, रह-रह कर पानी! पानी! की आवाज
आती है। एक ओर जरा ऊॅंची जमीन पर मगध की राजपताका निष्कम्प
झुकी हुई है, मानों, वह शर्म से अपना मस्तक नहीं उठा सकती।
ध्वजा के दंड से पीठ लगाए हुए सम्राट् अशोक परिताप की मुद्रा में खड़े हैं।)
अशोक के गीत
१
जय की वासने उद्दाम!
देख ले भर आँख निज दुष्कृत्य के परिणाम।
रुण्ड-मुण्डों के लुठन में नृत्य करती मीच;
देख ले भर आँख धरती पर रुधिर की कीच।
मनुज के पाँवों-तले मर्दित मनुज का मान,
आदमीयत के लहू में आदमी का स्नान।
जय की वासने उद्दाम!
२
रण का एक फल संहार।
मातृमुख की वेदना, वैधव्य की चीत्कार।
गन्ध से जिनकी कभी होता मुदित संसार,
वे मुकुल असमय समर में हाय, होते क्षार।
देह की जो जय, वही भावुक हृदय की हार,
जीतते संग्राम हम पहले स्वयं को मार।
रण का एक फल संहार।
३
हमने क्या किया भगवान?
यह बहा किसका लहू? किसका हुआ अवसान?
कौन थे, जिनको न जीने का रहा अधिकार?
कौन मैं, जिसने मचाया यह विकट संहार?
ऊर्मियाँ छोटी-बड़ी, पर, वारि एक समान।
सत्य ओझल, सामने केवल खड़ा व्यवधान।
हमने क्या किया भगवान?
४
पापी खड्ग घोर कठोर!
ले विदा मुझसे, सदा को संग मेरा छोड़।
अब नहीं जय की तृषा, फिर अब नहीं यह भ्रान्ति,
अब नहीं उन्माद फिर यह, अब नहीं उत्क्रान्ति।
अब नहीं विकरालता यह शत्रु के भी साथ,
अब रॅंगूँगा फिर नहीं नर के रुधिर से हाथ।
जोड़ना सम्बन्ध क्या जय से, दया को छोड़?
खोजना क्या कीर्ति अपने को लहू में बोर?
पापी खड्ग घोर कठोर!
५
गूँजे धर्म का जयगान।
शान्ति-सेवा में लगें समवेत तन, मन, प्राण।
व्यर्थ प्रभुता का अजय मद, व्यर्थ तन की जीत,
सार केवल मानवों से मानवों की प्रीत।
मृत्ति पर रेखा विजय की खींचते हम लाल,
मेटता उसको हमारी पीठ-पीछे काल।
पर, विजय की एक भू है और जिसके पास,
मृत्यु जा सकती न, करती है अमरता वास।
ज्योति का वह देश, करुणा की जहाँ है छाँह,
अबल भी उठते जहाँ धर कर बली की बाँह।
दृग वही जो कर सके उस भूमि का सन्धान,
जो वहाँ पहुँचा सके सच्चा वही उत्थान।
गूँजे धर्म का जयगान।
(पट-परिवर्तन)