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दृश्य ७

18 फरवरी 2022

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 (कलिंग की युद्धभूमि लाशों से पटी हुई धरती पर फीकी चाँदनी
फैली
हुई है घायल कराह रहे हैं, रह-रह कर पानी! पानी! की आवाज
आती
है। एक ओर जरा ऊॅंची जमीन पर मगध की राजपताका निष्कम्प 

झुकी हुई है, मानों, वह शर्म से अपना मस्तक नहीं उठा सकती।
ध्वजा
के दंड से पीठ लगाए हुए सम्राट् अशोक परिताप की मुद्रा में खड़े हैं।) 

  

अशोक के गीत 

  

 

जय की वासने उद्दाम! 

देख ले भर आँख निज दुष्कृत्य के परिणाम। 

रुण्ड-मुण्डों के लुठन में नृत्य करती मीच; 

देख ले भर आँख धरती पर रुधिर की कीच। 

मनुज के पाँवों-तले मर्दित मनुज का मान, 

आदमीयत के लहू में आदमी का स्नान। 

जय की वासने उद्दाम! 

  

 

रण का एक फल संहार। 

मातृमुख की वेदना, वैधव्य की चीत्कार। 

गन्ध से जिनकी कभी होता मुदित संसार, 

वे मुकुल असमय समर में हाय, होते क्षार। 

देह की जो जय, वही भावुक हृदय की हार, 

जीतते संग्राम हम पहले स्वयं को मार। 

रण का एक फल संहार। 

  

 

हमने क्या किया भगवान? 

यह बहा किसका लहू? किसका हुआ अवसान? 

कौन थे, जिनको न जीने का रहा अधिकार? 

कौन मैं, जिसने मचाया यह विकट संहार? 

ऊर्मियाँ छोटी-बड़ी, पर, वारि एक समान। 

सत्य ओझल, सामने केवल खड़ा व्यवधान। 

हमने क्या किया भगवान? 

  

 

पापी खड्ग घोर कठोर! 

ले विदा मुझसे, सदा को संग मेरा छोड़। 

अब नहीं जय की तृषा, फिर अब नहीं यह भ्रान्ति, 

अब नहीं उन्माद फिर यह, अब नहीं उत्क्रान्ति। 

अब नहीं विकरालता यह शत्रु के भी साथ, 

अब रॅंगूँगा फिर नहीं नर के रुधिर से हाथ। 

जोड़ना सम्बन्ध क्या जय से, दया को छोड़? 

खोजना क्या कीर्ति अपने को लहू में बोर? 

पापी खड्ग घोर कठोर! 

  

 

गूँजे धर्म का जयगान। 

शान्ति-सेवा में लगें समवेत तन, मन, प्राण। 

व्यर्थ प्रभुता का अजय मद, व्यर्थ तन की जीत, 

सार केवल मानवों से मानवों की प्रीत। 

मृत्ति पर रेखा विजय की खींचते हम लाल, 

मेटता उसको हमारी पीठ-पीछे काल। 

पर, विजय की एक भू है और जिसके पास, 

मृत्यु जा सकती न, करती है अमरता वास। 

ज्योति का वह देश, करुणा की जहाँ है छाँह, 

अबल भी उठते जहाँ धर कर बली की बाँह। 

दृग वही जो कर सके उस भूमि का सन्धान, 

जो वहाँ पहुँचा सके सच्चा वही उत्थान। 

गूँजे धर्म का जयगान। 

  

(पट-परिवर्तन)  

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रचनाएँ
इतिहास के आँसू
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रामधारी सिंह 'दिनकर' ' (23 सितम्‍बर 1908- 24 अप्रैल 1974) हिन्दी के एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे। वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं। 'दिनकर' स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद 'राष्ट्रकवि' के नाम से जाने गये।
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मंगल-आह्वान

18 फरवरी 2022
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भावों के आवेग प्रबल  मचा रहे उर में हलचल।     कहते, उर के बाँध तोड़  स्वर-स्त्रोत्तों में बह-बह अनजान,  तृण, तरु, लता, अनिल, जल-थल को  छा लेंगे हम बनकर गान।     पर, हूँ विवश, गान से कैसे  जग

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मगध-महिमा (पद्य-नाटिका)

18 फरवरी 2022
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 दृश्य १  (नालन्दा का खँडहर गैरिक वसन पहने हुए कल्पना खँडहर के  भग्न प्रचीरों की ओर जिज्ञासा से देखती हुई गा रही है।)     कल्पना का गीत     यह खँडहर किस स्वर्ण-अजिर का?  धूलों में सो रहा टूटकर

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इतिहास के गीत

18 फरवरी 2022
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 १  कल्पने! धीरे-धीरे गा!  यह टूटा प्रासाद सिद्धि का, महिमा का खँडहर है,  ज्ञानपीठ यह मानवता की तपोभूमि उर्वर है।  इस पावन गौरव-समाधि को सादर शीश झुका।  कल्पने! धीरे-धीरे गा!     २  मैं बूढ़ा

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दृश्य २

18 फरवरी 2022
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 (उरुवेला की भूमि बरगद के पेड़ के नीचे कृशकायगौतम विराजमान हैं,  सामने सोने की थाल में खीर परोसी हुई है आरतीजल रही है धूप का धुआँ  उठ रहा है सामने सुजाता प्रार्थना कर रही है।)    सुजाता का गीत   

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दृश्य ३

18 फरवरी 2022
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 (प्रथम दृश्य की आवृत्ति कल्पना खड़ी सुन रहीहै इतिहास नेपथ्य के भीतर से गाता है।)     इतिहास के गीत  १  सुधा-सर का करते सन्धान।  उरुवेला में यहीं कहीं विचरे गौतम गुणवान!  बैठे तरुतल यहीं लगा मु

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दृश्य ४

18 फरवरी 2022
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 (प्रथम दृश्य की आवृत्ति कल्पना खड़ी सुन रही है इतिहास  नेपथ्य के भीतर से गाता है।)     इतिहास के गीत  १  सुधा-सर का करते सन्धान।  उरुवेला में यहीं कहीं विचरे गौतम गुणवान!  बैठे तरुतल यहीं लगा

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दृश्य ५

18 फरवरी 2022
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(चन्द्रगुप्त का राजदरबार सेल्यूकस, सेल्यूकस की युवती कन्या  और मेगस्थनीज एक ओर बैठे हैं चन्द्रगुप्त, चाणक्य और सभासद्  यथास्थान। चौथे दृश्य वाले नागरिक भी आते हैं।)     एक नागरिक (आपस में कानोंकान

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दृश्य ६

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(प्रथम दृश्य की आवृत्ति सामने कल्पना खड़ी सुन रही  है नेपथ्य के भीतर से इतिहास गाता है।)     इतिहास के गीत     १  कल्पने! तब आया वह काल।  उठा जगत में धर्म-तिलक-दीपित भारत का भाल  फिलस्तीन, ईरा

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दृश्य ७

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 (कलिंग की युद्धभूमि लाशों से पटी हुई धरती पर फीकी चाँदनीफैली हुई है घायल कराह रहे हैं, रह-रह कर पानी! पानी! की आवाजआती है। एक ओर जरा ऊॅंची जमीन पर मगध की राजपताका निष्कम्प  झुकी हुई है, मानों, वह शर

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दृश्य ८

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(प्रथम दृश्य की आवृत्ति कल्पना खड़ी सुन रही है  नेपथ्य के भीतर से इतिहास है गाता।)    इतिहास के गीत    १  कल्पने! जीवन के उस पार।  चमक उठा आँखों के आगे एक नया संसार।  प्राणों की जब सुनी प्राण

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पाटलिपुत्र की गंगा से

18 फरवरी 2022
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संध्या की इस मलिन सेज पर  गंगे ! किस विषाद के संग,  सिसक-सिसक कर सुला रही तू  अपने मन की मृदुल उमंग?     उमड़ रही आकुल अन्तर में  कैसी यह वेदना अथाह ?  किस पीड़ा के गहन भार से  निश्चल-सा पड़ ग

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मिथिला

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मैं पतझड़ की कोयल उदास,  बिखरे वैभव की रानी हूँ  मैं हरी-भरी हिम-शैल-तटी  की विस्मृत स्वप्न-कहानी हूँ।     अपनी माँ की मैं वाम भृकुटि,  गरिमा की हूँ धूमिल छाया,  मैं विकल सांध्य रागिनी करुण, 

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वैशाली

18 फरवरी 2022
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ओ भारत की भूमि वन्दिनी! ओ जंजीरोंवाली!  तेरी ही क्या कुक्षि फाड़ कर जन्मी थी वैशाली?     वैशाली! इतिहास-पृष्ठ पर अंकन अंगारों का,  वैशाली! अतीत गह्वर में गुंजन तलवारों का।     वैशाली! जन का प्रत

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बोधिसत्त्व

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 सिमट विश्व-वेदना निखिल बज उठी करुण अन्तर में,  देव ! हुंकरित हुआ कठिन युगधर्म तुम्हारे स्वर में ।  काँटों पर कलियों, गैरिक पर किया मुकुट का त्याग  किस सुलग्न में जगा प्रभो ! यौवन का तीव्र विराग ? 

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कलिंग-विजय

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(1)  युद्ध की इति हो गई; रण-भू श्रमित, सुनसान;  गिरिशिखर पर थम गया है डूबता दिनमान--     देखते यम का भयावह कृत्य,  अन्ध मानव की नियति का नृत्य;     सोचते, इस बन्धु-वध का क्या हुआ परिणाम?  विश्

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वसन्त के नाम पर

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 १.  प्रात जगाता शिशु-वसन्त को नव गुलाब दे-दे ताली।  तितली बनी देव की कविता वन-वन उड़ती मतवाली।     सुन्दरता को जगी देखकर,  जी करता मैं भी कुछ गाऊॅं;  मैं भी आज प्रकृति-पूजन में,  निज कविता के

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वैभव की समाधि पर

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हँस उठी कनक-प्रान्तर में  जिस दिन फूलों की रानी,  तृण पर मैं तुहिन-कणों की  पढ़ता था करुण कहानी।     थी बाट पूछती कोयल  ऋतुपति के कुसुम-नगर की,  कोई सुधि दिला रहा था  तब कलियों को पतझर की।   

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