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दृश्य ५

18 फरवरी 2022

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(चन्द्रगुप्त का राजदरबार सेल्यूकस, सेल्यूकस की युवती कन्या 

और मेगस्थनीज एक ओर बैठे हैं चन्द्रगुप्त, चाणक्य और सभासद् 

यथास्थान। चौथे दृश्य वाले नागरिक भी आते हैं।) 

  

एक नागरिक (आपस में कानोंकान) 

हैं महाराज खुद बोल 

मत हिलो - डुलो, 

चुपचाप सुनो! 

  

चन्द्रगुप्त 

  

मगध राज्य के सभासदो! पाटलीपुत्र के वीरों! 

मगध नहीं चाहता किसी को अपना दास बनाना! 

गुरु कहते हैं, दासभाव आर्यों के लिए नहीं है; 

मैं कहता हूँ, मनुजमात्र ही गौरव का कामी है। 

मैं न चाहता, हरण करें हम किसी देश का गौरव, 

किसी जाति को जीत उसे फिर अपना दास बनायें। 

उठी नहीं तलवार मगध की किसी लोभ, लालच से, 

और न हम प्रतिशोध-भाव से प्रेरित हुए कभी भी। 

  

न दासभावो आर्यस्य (कौटिल्य का अर्थशास्त्र)। 

  

छिन्न-भिन्न है देश, शक्ति भारत की बिखर गई है; 

हम तो केवल चाह रहे हैं उसको एक बनाना। 

मृदु विवेक से, बुद्धि-विनय से, स्नेहमयी वाणी से, 

अगर नहीं, तो धनुष-बाण से, पौरुष से, बल से भी। 

ऋषि हैं गुरु चाणक्य; नीति उनकी हम बरत रहे हैं। 

  

भरतभूमि है एक, हिमालय से आसेतु निरन्तर, 

पश्चिम में कम्बोज-कपिश तक उसकी ही सीमा है। 

किया कौन अपराध, गये जो हम अपनी सीमा तक? 

अनाहूत हमसे लड़ने क्यों सेल्यूकस चढ़ आया? 

मदोन्मत्त यूनान जानता था न मगध के बल को, 

समझा था वह हमें छिन्न, शायद, पुरु-केकय-सा। 

वह कलंक का पंक आज धुल गया देश के मुख से 

हम कृतज्ञ हैं, सेल्यूकस ने अवसर हमें दिया है। 

  

वीर सिकन्दर के गौरव का प्रतिभू सेल्यूकस था; 

आज खड़ा है वह विपन्न, आहत-सा मगध सभा में; 

उस बलिष्ठ शार्दूल-सदृश निष्प्रभ, हततेज, अकिंचन, 

पर्वत से टकरा कर जिसने नख-रद तोड़ लिये हों; 

उस भुजंग-सा जिसकी मणि मस्तक से निकल गई हो; 

उस गज-सा जिस पर मनुष्य का अंकुश पड़ा हुआ हो। 

सभा कहे, बरताव कौन-सा मगध करे इस अरि से। 

  

प्रमुख सभासद् 

  

महाराज ने कही न ये अपने मन की ही बातें, 

यही भाव है मगध देश के धर्मशील जन-जनमें, 

नहीं चाहते किसी देश को हम निज दास बनाना, 

पर, स्वदेश का एक मनुज भी दास न कहीं रहेगा। 

हम चाहते सन्धि; पर, विग्रह कोर्इ्र खड़ा करे तो, 

उत्तर देगा उसे मगध का महा खड्ग बलशाली। 

सेल्यूकस के साथ किन्तु, कैसा बरताव करें हम, 

इसका उचित निदान बतायें गुरु चाणक्य स्वयं ही; 

क्योंकि सभा अनुरक्त सदा है उनकी ज्ञान-विभा पर। 

  

चाणक्य 

  

आग के साथ आग बन मिलो, 

और पानी से बन पानी, 

गरल का उत्तर है प्रतिगरल, 

यही कहते जग के ज्ञानी। 

  

मित्र से नहीं शत्रुता और, 

शत्रु से नहीं चाहिए प्रीति; 

माँगने पर दो अरि को प्रेम, 

किन्तु, है यह भी मेरी नीति। 

  

शक्ति के मद में होकर चूर 

विजय को निकला था यूनान, 

एक ही टकराहट में गया 

मगध को वह लेकिन; पहचान। 

  

प्रीति जो निकली पीछे झूठ, 

भीति क्या? हम तो हैं तैयार; 

चरण फिर-फिर चूमेगी जीत, 

मगध की तेज रहे तलवार। 

  

अतः, है सेल्यूकस के हाथ, 

मित्रता ले या ले आमर्ष, 

खड़ा है लेकर दोनों भेंट 

ग्रीस के सम्मुख भारतवर्ष। 

  

सेल्यूकस 

  

सामने नहीं, मंच पर आज 

खड़ा है विजयी भारत वीर, 

और है मिट्टी पर यूनान, 

पराजय की पहने जंजीर। 

  

हमारी बॅंधी हुई है जीभ, 

हमारी कसी हुई है! देह, 

भला फिर मैं माँगूँ किस भॉंति 

गुणी चाणक्य! वैर या स्नेह? 

  

मित्रता या कि शत्रुता घोर, 

आपका जो जी चाहे करें, 

एक है लेकिन, छोटी बात, 

विनय है, उसको मन में धरें। 

  

याद है कल पोरस के साथ 

सिकन्दर ने सलूक जो किया? 

  

चन्द्रगुप्त 

  

धन्य सेल्यूकस! तुमने खूब 

आज गुरुवर को उत्तर दिया। 

  

वीरता का सच्चा बन्धुत्व, 

झूठ है हार जीत का भेद; 

वीर को नहीं विजय का गर्व, 

वीर को नहीं हार का खेद। 

  

किये मस्तक जो ऊॅंचा रहे 

पराजय-जय में एक समान, 

छीनते नहीं यहाँ के लोग 

कभी उस बैरी का अभिमान। 

  

सिकन्दर ही न, और भी लोग 

प्रेम करते हैं अरि के साथ। 

मगध का कर यह देखो बढ़ा, 

बढ़ाओ अब तो अपना हाथ। 

  

(चन्द्रगुप्त सिंहासन पर से अपना हाथ बढ़ाता है 

सेल्यूकस दोनों हाथों से उसे थाम लेता है।) 

  

सेल्यूकस 

  

जय हो मगधनरेश! न था मुझको इसका अनुमान, 

आज पराजित है, सचमुच ही, भारत में यूनान। 

जय हो, दिन-दिन बढ़े मगध का बल, वैभव, उत्कर्ष, 

हुआ आज से सेल्यूकस का भी गुरु भारतवर्ष। 

सन्धि नहीं, सम्बन्ध जोड़कर मुझको करें सनाथ, 

अर्पित है दुहिता यह मेरी, पकड़ें इसका हाथ। 

ग्रीस देश की इस मणि को उर-पुर में रखें सहेज, 

सीमा पर के चार प्रान्त देता हूँ इसे दहेज। 

आज्ञा हो तो राजदूत मेगस्थनीज को छोड़, 

अब जाऊॅं मैं शेष दिवस काटने ग्रीस की ओर। 

  

(चन्द्रगुप्त सेल्यूकस की पुत्री को उठाकर सिंहासन पर 

बिठलाते हैं मेगस्थनीज उठकर राजा को प्रणाम करता है।) 

  

(नागरिकों का कोरस गाते हुए प्रस्थान) 

  

जय हो, चन्द्रगुप्त की जय हो। 

जय हो बल-विक्रम-निधान की, 

जय हो भारत के कृपाण की, 

जय हो जय हो मगधप्राण की, 

सारा देश अभय हो, 

चन्द्रगुप्त की जय हो। 

  

(गीत दूर पर खत्म होता सुनायी पड़ता है।) 

(पट-परिवर्तन) 

  

   

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