ऐसा क्यों है कि हम सभी अधिकार के लिए तो सदैव सजग एवं तत्पर होते हैं लेकिन जब कर्त्तव्य की बारी आती है तो अगर मगर या इधर उधर के बहाने खोजने लगते हैं ??? बात अगर हम संविधान में मिले मौलिक अधिकारों की ही करें तो इन अधिकारों पर थोड़ी सी भी चर्चा चले तो हम बोलने से पीछे नहीं हटते लेकिन संविधान द्वारा निर्धारित कर्त्तव्य की बात चले तो हम चुप क्यों हो जाते हैं या क्या हम इसे बखूबी जानते हैं और अगर जानते भी हैं तो क्या हम इसका पालन करते हैं ???