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‼ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼
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*इस धरती पर अनेकों जीव विचरण कर रहे हैं इनमें सर्वश्रेष्ठ प्राणी मनुष्य को कहा गया है | चौरासी लाख योनियों में सर्वश्रेष्ठ मानव योनि कही गई है | साधारण से दिखने वाले मनुष्य में इतनी शक्तियां छुपी हुई है कि वह हजारों जन्मों के कर्म बंधनों और पाप - तापों को काटकर अपने अजन्मा अमर आत्मा में प्रतिष्ठित हो सकता है , परंतु इसके लिए मनुष्य को साधक बनना पड़ेगा | साधक क्या है ? इस पर यदि विचार किया जाय तो यही सामने आता है कि जिस प्रकार लोधी धन को संभालता है , अहंकारी अपनी कुर्सी को संभालता है , मोही व्यक्ति अपने कुटुंबियों को संभालता है उसी प्रकार एक साधक को अपने चित्त को चंचल क्षीण एवं उग्र होने से बचाना पड़ता है | साधक बनने की पहली प्रक्रिया है अपने चित्त को शांत करना , जिन कारणों से चित्त में मोह लोभ क्षोभ आदि उत्पन्न होते हैं उन कारणों से साधक को सदैव सावधान रहना पड़ता है | जो साधक होता है वह अपनी आंतरिक शक्तियों का संचय करता है , एक साधक के हृदय में निर्मलता , निर्मोहिता , निर्भीकता एवं निरहंकारिता की सुगंध होती है | साधक संसार के नश्वर सुख भोग की वस्तुओं की अपेक्षा ना करके अंतर्मुखी होकर आत्मानंद को पाने के महान पथ का पथिक हो जाता है , उसे किसी की निंदा - स्तुति , मान - अपमान और राग द्वेष से कोई मतलब नहीं रह जाता है , वह तो सिर्फ अपनी आत्मा में गोता मारने का प्रयास करता है | साधक सदैव परमात्मप्राप्त महापुरुषों का सान्निध्य प्राप्त करने के लिए उत्सुक होता है | साधक एकांतवास , धारणा ध्यान का अभ्यास , ईश्वर के प्रति प्रेम , शास्त्रों पर विचार एवं महापुरुषों की संगति करने के लिए सदैव तत्पर रहता है | सांसारिकता से दूर होकर जो भी व्यक्ति आध्यात्मिक पथ का पथिक बनने का प्रयास करता है वही साधक बन सकता है कहने को तो अनेक लोग स्वयं को साधक कहते हैं परंतु सत्संग चर्चा में वेदांत के वचनों पर भी उनको अविश्वास ही होता रहता है | इन सबसे अलग हटते हुए वेदांत के वचनों को सुनकर एकांत में उनका मनन करते हुए निदिध्यासन की भूमिका प्राप्त करने वाला ही साधक बन सकता है , और अंततोगत्वा वही सिद्ध भी होता है | यदि कोई साधक अपने आंतरिक शक्तियों का संचय करते हुए अपनी आत्मा में प्रतिष्ठित होने तक उसे सावधानी से संभाल कर रखे तो एक दिन ऐसा आएगा कि वही साधक सिद्ध हो जाता है |*
*आज के युग में जहां चारों ओर काम , क्रोध , मोह , लोभ , अहंकार , ईर्ष्या एवं मात्सर्य का साम्राज्य दिखाई पड़ रहा है ऐसे में साधक मिल पाना या बन पाना बहुत ही दुष्कर कार्य है | आज अनेकों विद्वान स्वयं को साधक तो कहते हैं परंतु उनकी बातों में समय-समय पर लोभ , मोह , अहंकार का पुट स्पष्ट दिखाई पड़ता है | जहां साधक के लिए सुख भोग की वस्तुओं का त्याग लिखा हुआ है वही आज के साधक सांसारिक सुख भोग की वस्तुओं का संग्रह करके इंद्रिय सुखों को भोगने के लिए तत्पर दिखाई पड़ रहे हैं | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" किसी साधक के ऊपर कटाक्ष ना करके आज के वर्तमान में दिखाई पड़ रहे साधकों के क्रियाकलाप देखते हुए यह कह सकता हूं कि आज स्वयं को आत्मसाधक , तंत्र साधक एवं मंत्र साधक कहने वाले अनेकों विद्वान दिन भर एक दूसरे की निंदा - स्तुति करते हुए राग - द्वेष के झूले में झूल रहे हैं | आज सनातन धर्म के उच्च पदों पर बैठे हुए अनेकों महापुरुष भी दिन भर टेलीविजन पर बैठ कर के एक दूसरे के प्रति कैसे वक्तव्य दे रहे हैं यह किसी से छुपा नहीं है | दूसरों को अपने मन को साधने का उपदेश देने वाले स्वयं अपने मन को नहीं साध पा रहे हैं , अपने चित्त में शांति नहीं ला पा रहे हैं | इन साधकों को यद्यपि यह ज्ञान होता है कि एक साधक के लिए व्यर्थ का बोलना , सुनना एवं देखना उनकी प्राणशक्ति , मन:शक्ति एवं एकाग्रता की शक्ति को क्षीण कर रहा है फिर भी वे स्वयं को इससे बचा नहीं पा रहे हैं | एकांतवास करने वाले आज ज्यादा से ज्यादा समाज के बीच में रहकर ख्याति प्राप्त करने के लिए उत्सुक दिखाई पड़ रहे हैं | ऐसे में किसे साधक माना जाए और किसी ना माना जाए यह असमंजस की स्थिति उपस्थित हो जाती है | यदि साधक बनना है तो सबसे पहले चित्त की चंचलता को समाप्त करना होगा अन्यथा कोई भी साधना या सिद्धि कदापि नहीं प्राप्त हो सकती |*
*ईश्वर का युवराज कहा जाने वाला मनुष्य को यदि साधक बन करके सिद्धि प्राप्त करना है तो उसे एकांतवास , धारणा ध्यान का अभ्यास , शास्त्र विचार एवं महापुरुषों की संगत करना ही होगा , तभी उस परम सुख स्वरूप परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है |*
आचार्य अर्जुन तिवारी
प्रवक्ता
श्रीमद्भागवत/श्रीरामकथा
संरक्षक
संकटमोचन हनुमानमंदिर
बड़ागाँव श्रीअयोध्याजी
(उत्तर-प्रदेश)
9935328830
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