*इस संसार में समस्त जड़ - चेतन को संचालित करने वाला परमात्मा है तो मनुष्य को क्रियान्वित करने वाला है मनुष्य का मन | मनुष्य का मन स्वचालित होता है और मौसम , खान - पान , परिस्थिति एवं आसपास घट रही घटनाओं के अनुसार परिवर्तित होता रहता है | जिस प्रकार मनुष्य के जीवन में बचपन , जवानी एवं बुढ़ापा रूपी तीन अवस्थायें होती रहती हैं उसी प्रकार इस मन की भी अवस्थायें होती रहती हैं | शास्त्रज्ञों ने इस मन की पाँच अवस्थायें बतायी हैं | ये पाँच अवस्थायें हैं :- १- क्षिप्त , २- मूढ़ , ३- विक्षिप्त , ४- एकाग्र एवं ५- निरू | जब मनुष्य का मन "क्षिप्त अवस्था" में होता है तो मन की चंचलता अपनी शिखर पर होती है | पल पल मनुष्य के विचार बदलते रहते हैं , मन में स्थायित्व न होने के भाव को कहते हैं क्षिप्त अवस्था | इस अवस्था में मनुष्य अपने मन को भाँति - भाँति के विचारों से नहीं रोक पाता | इस अवस्था में रजोगुण की प्रधानता होती है | क्षिप्त अवस्था के बाद मन की दूसरी अवस्था होती है :- "मूढ़ अवस्था" | इस अवस्था को तमोगुण प्रधान होता है , मनुष्य मूर्छित सा किसी नशेड़ी की तरह जीवन यापन करने को विवश होता है | आलस्य की प्रधानता होती है क्योंकि इस स्थिति में मनुष्य का मन पूर्णरूप से स्वस्थ नहीं होता है | मनुष्य कोई भी निर्णय कर पाने में सक्षम नहीं होता है | मनुष्य के मन की तीसरी अवस्था को "विक्षिप्त अवस्था" कहा जाता है | सत्त्वगुण की प्रधानता वाली यह अवस्था बीच बीच में रजोगुण एवं तमोगुण से प्रभावित होती रहती है जिसके कारण मनुष्य का स्थिर होता मन विचलित हो जाता है | सत्वगुण के प्रभाव से जैसे ही मन एकाग्र होने लगता है तभी रजोगुण या तमोगुण के आक्रमण से मन उचट जाता है | मनुष्य यह नहीं समझ पाता है कि मैं क्या करूँ या क्या न करूँ ? जब मनुष्य अपने मन में सतोगुण की वृद्धि करने में सफल हो जाता है तब रजोगुण एवं तमोगुण निष्प्रभावी हो जाते है और आत्मा का पूरा प्रभाव मन पर हो जाता है तब इस मन की "एकाग्र अवस्था" प्रारम्भ होती है | जब मन पूरी तरह नियंत्रण में आ जाता है , कुत्सित विचारों का अन्त हो जाता है तखा मनुष्य जो चाहता वही विचार उत्पन्न होने लगते हैं तब मन की "एकाग्र अवस्था" होती है | इस अनस्था में मनुष्य का अपने मन के ऊपर ठीक वैसा ही नियंत्रण होता है जैसा किसी वाहन चालक का अपने वाहन पर | इस अवस्था में जीवात्मा को समाधि की अनुभूति होने लगती है | इसे "संप्रज्ञात - समाधि" भी कहा जाता है | इन चारों अवस्थाओं को पार कर लेने पर मन की पाँचवी "निरू अवस्था" प्रारम्भ होती है | यह बिल्कुल एकाग्र का ही प्रतिरूप है अन्तर मात्र इतना होता है कि एकाग्र अवस्था में मन को प्राकृतिक तत्वों एवं जीवात्मा की अनुभूति होती है तो "निरू अवस्था" में मन को मात्र ईश्वर की ही अनुभूति होती है | यह भी समाधि की ही स्थिति कही जाती है परंतु इसका विषय बदल जाता है , इस अवस्था में ईश्वर के अतिरिक्त दूसरा चिंतन नहीं होता , इसे "असंप्रज्ञात समाधि" भी कहा जाता है | इस तरह मन की पाँच अवस्थायें होती हैं |*
*आज के इस आधुनिक युग में मनुष्य ने शिक्षा तो बहुत ग्रहण कर ली है परंतु इन गूढ़ रहस्यों को जानने या जानने का प्रयास करने वाले बहुत कम ही लोग मिलते हैं | यह आध्यात्मिकता का विषय है परंतु आज मनुष्य का मन क्षिप्त अवस्था में रहकर भौतिकता की ओर अधिक आकर्षित है | आज अधिकतर मनुष्य क्षिप्त , मूढ़ एवं विक्षिप्त अवस्था के ही वशीभूत दिखाई पड़ रहे हैं | निरू अवस्था की तो बात ही छोड़ दीजिए आज बड़े बड़े ज्ञानी - ध्यानी भी एकाग्र अवस्था को भी नहीं प्राप्त हो पा रहे हैं | मानव जीवन का उद्देश्य जहाँ मन को ईश्वर में लगाना बताया गया है वहीं आज मनुष्य निरुद्देश्य जीवन जी रहा है | कुछ लोग कहते हैं कि मन इतना चंचल है कि यह वश में ही नहीं आता आखिर मन को एकाग्र कैसे किया जाय ?? उन सभी लोगों से मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" इतना ही कहना चाहूँगा कि हाँ यह ठीक है कि मन को नियंत्रण में करना कठिन एवं दुष्कर कार्य है परंतु असम्भव तो नहीं है ? अभ्यास एवं योग को माध्यम बनाकर इस असम्भव दिख रहे कार्य को भी सम्भव किया जा सकता है | कहा गया है कि :- "योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:" अर्थात :- मन के विचारों पर धीरे - धीरे नियंत्रण किया जाय , जैसे - जैसे ये विचार रूकते जायेंगे वैसे वैसे ही स्थिति दिव्य हो जायेगी | जिस दिन विचारों का आवागमन पूरी तरह बन्द हो जायेगा उसी दिन समाधि अर्थात एकाग्र अवस्था प्रारम्भ हो जायेगी | इससे भी आगे जायेंगे और विचारों के बन्धन से पूरी तरह बाहर आ जाने पर जब अपने जन्मदाता ईश्वर के प्रति ही चिन्तन होने लगेगा तो मनुष्य निरू अवस्था में पहुँच जायेगा | लोग कहते हैं कि कलियुग की चकाचौंध में यह कर पाना मुश्किल है परंतु उनको विचार करना चाहिए कि इसी कलियुग में अनेकों लोग हुए हैं जिन्होंने अपने मन के ऊपर शासन किया है | आवश्यकता है इस गूढ़ रहस्य को समझने की , जिस गिन यह रहस्य समझ में आ जायेगा उस दिन कुछ भी असम्भव नहीं रह जायेगा |*
*मानव शरीर में मन एक ही है परंतु उसकी अवस्थायें भिन्न हैं | यह मनुष्य के ऊपर निर्भर करता है कि वह किस अवस्था को प्राप्त होना चाहता है |*