*इस संसार में जन्म लेने के बाद मनुष्य माया में लिप्त हो जाता है और इसी के वशीभूत होकर वह सांसारिक जीवों , पदार्थों के आसक्ति में डूब जाता है | किसी भी प्राणी या वस्तु के विषय में दिन रात सोंचते रहना एवं उसे प्राप्त ही कर लेने कामना , या पहले से उपलब्ध वस्तु को कभी भी न छोड़ने का भाव ही आसक्ति कहा गया है | जब मनुष्य संसार के कर्मों में अपने को लिप्त रखता है तब मनुष्य और संसारिक कामों के बीच में जो संबंध या आसक्ति होती है उससे व्यथा , दुख , विषाद आदि की उत्पत्ति होती है | यही सृष्टि का नियम है | जहां कर्म के साथ मनुष्य का संपर्क होगा , जहां प्रवृत्ति के साथ मनुष्य का रिश्ता स्थापित होता है वहीं दुख होता है | क्यों होता है दुख? इसे समझने के लिए गीता का अध्ययन करना पड़ेगा जहाँ स्पष्ट कहा गया है कि :- मनुष्य का कर्म में अधिकार है , फल में नहीं | परंतु जब मनुष्य कोई भी कर्म करता है तब फल की इच्छा से करता है और यथोक्त फल न प्राप्त होने पर वह दुखी हो जाता है | फल की इच्छा रखना ही दुख की जड़ है | फल तीन प्रकार के होते हैं :- इष्ट , अनिष्ट एवं मिश्रित | यदि मनुष्य फल को प्राप्त करने में अपना अधिकार समझता है तो उसे तीनों को भोगने के लिए तैयार रहना चाहिए | प्रवृत्ति मार्ग में चलनेवाले मनुष्यों को प्रवृत्ति के साथ एक और गुण की उपासना करनी चाहिए , वह गुण है फलाकांक्षा का त्याग , जिसे अनासक्ति कहा गया है | अनासक्ति को ही गीता में समझाया गया है | संन्यास , राजयोग और भक्तियोग को समझाते समय योगेश्वर श्रीकृष्ण की एक ही उद्घोषणा है कि अनासक्ति भाव से कर्म करो | क्योंकि जब मनुष्य अनासक्ति भाव से कोई कर्म करता है तो उससे प्राप्त होने वाले फल से उसे कष्ट नहीं होता परंतु आज मनुष्य विभिन्न प्रकार की आसक्तियों के जाल में जकड़ गया है , इससे बाहर निकल पाना मुश्किल ही नहीं वरन् असम्भव सा प्रतीत हो रहा है |*
*आज जहाँ देखो दुख ही दुख पसरा पड़ा है | कोई भी मनुष्य सुखी नहीं दिखाई पड़ता है | इन दुखों के मूल का अध्ययन किया जाय तो कारण मनुष्य की आसक्ति के रूप में ही सामने आता है | आज मनुष्य ने अपने हृदय में विभिन्न प्रकार की आसक्तियों को स्थान दे रखा है | किसी के पास यदि कुछ नहीं है तो वह उस वस्तु की आसक्ति में दिन रात विक्षिप्त बना रहता है और यदि किसी के पास कुछ है तो वह उस पर पूर्णरूपेण अधिकार चाहता है और ऐसा न होने पर वह दुखी हो जाता है | कभी कभी यह दुख इतना भयंकर रूप ले लेता है कि मनुष्य अपने प्राण तक दे देता है | आसक्ति मोह का ही दूसरा रूप है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" देख रहा हूँ कि आज समाज में विशेषकर युवावर्ग किसी के प्रति आसक्ति में इतना डूब जाता है कि उसका भोजन पानी तक छूट जाता है वह बीमार तक हो जाता है , और उसको नाम देता है प्रेम का ! जबकि यह प्रेम नहीं बल्कि आसक्ति या यूँ कहें कि देहासक्ति है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी | अनासक्त भाव से कोई कार्य करना ही नहीं चाहता है | यही मनुष्य के दुख का कारण है | आसक्ति एवं अवं अनासक्ति का उदाहरण यदि देखा जाय तो यही निकलता है कि :- जब मनुष्य कुछ प्राप्त करना चाहता है तो कठिन परिश्रम करता है क्योंकि उसे अपने लक्ष्य के प्रति आसक्ति होती है वहीं यदि वही लक्ष्य को वह मजदूरों के माध्यम से प्राप्त करना चाहता है तो यहाँ मजदूर को आपके लक्ष्य के प्रति कोई आसक्ति नहीं होती वह मात्र अपना समय व्यतीत करता है | कहने का तात्पर्य यह है कि यदि मनुष्य को दुख एवं कष्टों से बचना है तो गीता में बताये गये अनासक्ति भाव को अपनाना पड़ेगा |*
*आसक्ति के बिना संसार में रह पाना असम्भव भी है परंतु किसी की आसक्ति में विक्षिप्त हो जाना या प्राण गंवा देना मूर्खता के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है , क्योंकि हमारे ग्रंथ बताते हैं कि :- "अति सर्वत्र वर्जयेत्" |*