*यह समस्त संसार मायामय है | संसार में अवतीर्ण जड़ चेतन एवं जितनी भी सृष्टि है सब माया ही है | माया को भगवान की शक्ति एवं दासी कहा गया है | जिस प्रकार एक सिक्के के दो पहलू होते हैं एक ओर देखो तो दूसरा अदृश्य हो जाता है ठीक उसी प्रकार ब्रह्म एवं माया सिक्के के दो पहलू हैं जब मनुष्य माया में लिप्त हो जाता है तो उसके मनो मस्तिष्क से ब्रह्म के तत्व की अनुभूति समाप्त हो जाती है अर्थात ब्रह्म अदृश्य हो जाता है और जब मनुष्य ब्रह्म को देखने लगता है तो उसके आसपास से माया अदृश्य हो जाती है | श्रीमद्भागवत में वेदव्यास जी ने माया की परिभाषा स्वयं भगवान कृष्ण के मुंह से उद्धृत की है | भगवान स्वयं कहते हैं कि :- जहां मैं हूं वहां माया नहीं है और जहां माया है वहाँ मैं कभी जा ही नहीं सकता | माया को परिभाषित करते हुए अनेक ग्रंथ एवं अनेक लेखकों ने बहुत ही सुंदर
लेख लिखे हैं | "मैं - मेरा , तू - तेरा" यही माया है | जब मनुष्य माया के अधीन होता है तो उसको यह लगता है कि संसार में जो भी कार्य हो रहा है सब मेरे द्वारा ही संपादित हो रहा है | यही माया है , भगवान कि इस प्रबल माया से इस पृथ्वी पर जन्म लेने वाला कोई भी बच नहीं पाया है ! बचा वही है जिसने समय रहते स्वयं को संभाल लिया और ब्रह्म की शरण में चला गया | तुलसीदास जी ने माया की परिभाषा देते हुए बताया है कि :- गो गोचर जहं लगि मन जाई ! सो सब माया जानेहुं भाई !! अर्थात मनुष्य जहां तक सोच सकता है , जहां तक देख सकता है एवं जहां तक उसकी विचार शक्ति पहुंच सकती है वह सब माया ही है | इस माया की नगरी में विरले ही भगवान की इस माया से बच पाते हैं , अन्यथा यह माया किसी को भी नहीं छोड़ती |* *आज पूर्व काल की अपेक्षा माया की प्रबलता कुछ अधिक ही बढ़ती दिखाई पड़ रही है | प्रायः लोग धन को ही माया की संज्ञा देते हैं , और सारा उद्योग धनार्जन करने के लिए करते रहते हैं इससे माया उनको अपने जाल में लपेटे रहती है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" अब तक के अध्ययन या संतों के आशीर्वाद से जो जान पाया हूँ उसके अनुसार माया दो प्रकार की होती है :- १- जीव माया अर्थात अविद्या माया , २- गुण माया अर्थात विद्या माया जिसे योगमाया भी कहा जाता है | पृथ्वी , जल , वायु , अग्नि , आकाश , अहंकार , बुद्धि एवं मन यह आठों भगवान की अपरा / अविद्या माया है | गुण माया को प्रकृति माया भी कहा जाता है | इन समस्त मायाजालों से बचने का एक ही उपाय है जो योगेश्वर श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश देते हुए अर्जुन को बताया था कि :-- "दैवी ह्येषा गुणमयी मम मया दुरत्यया ! मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते !! अर्थात :- भगवान कहते हैं कि हे अर्जुन :- क्योंकि यह अलौकिक अर्थात् अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी माया बडी दुरस्त है , परंतु जो पुरुष केवल मुझको ही निरन्तर भजते हैं, वे इस मायाको पार कर जाते हैं अर्थात् संसारसे तर जाते हैं | कहने का मतलब वही हुआ कि यदि माया को पार पाना है तो भगवान की शरण लेना पड़ेगा | आज लोग ब्रह्म एवं माया में से माया का चुनाव करते हैं जबकि ब्रह्म का चुनाव करने से माया स्वयं उनके पास आ जायेगी क्योंकि माया तो ब्रह्म की ही शक्ति है जो ब्रह्म से अलग कभी नहीं हो सकती | यदि ब्रह्म को पाने का उद्योग कर लिया जाय तो माया स्वयमेव दासी हो जायेगी |* *भगवान की माया न तो प्रस्तुत है और नही ही अप्रस्तुत | यह किसी भी परिभाषा द्वारा परिभाषित नही हो सकती इसीलिए मनुष्य इसे समझ नही सकता , क्योंकि किसी भी वस्तु को समझने के लिए उस वस्तु की कुछ परिभाषा तो होनी चाहिये और माया की कोई परिभाषा नहीं है | सब माया ही है |*