*इस धरा धाम पर वैसे तो मनुष्य की कई श्रेणियां हैं परंतु आध्यात्मिक दृष्टि से मनुष्य को दो श्रेणियों में बांटा गया है :- प्रथम भक्त एवं दूसरा ज्ञानी | भक्त एवं ज्ञानी दोनों ही आध्यात्मिक पथ के पथिक हैं परंतु दोनों में भी भेद है | जहाँ भक्त बनना कुछ सरल है वहीं ज्ञानी बनना अत्यंत कठिन | भक्तों के लिए मात्र भगवद्भजन का आश्रय बताया गया है तो ज्ञानियों के लिए अनेक नियम प्रतिपादित किये गये हैं | इन नियमों का पालन करके अनेक महापुरुष ज्ञानी होकरके मानव मात्र के लिए कल्याणकारी सिद्ध हुए हैं | कुरुक्षेत्र के मैदान में मोहित हुए अर्जुन को गीता का ज्ञान देते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण ज्ञानी पुरुषों के विषय में बताते हैं कि :- हे अर्जुन ! विनम्रता , दम्भहीनता , अहिंसा , सहिष्णुता , सरलता , प्रामाणिक गुरु के पास जाना , पवित्रता , स्थिरता , आत्मसंयम , इन्द्रियतृप्ति के विषयों का परित्याग , अहंकार का अभाव , जन्म - मृत्यु , वृद्धावस्था तथा रोग के दोषों की अनुभूति , वैराग्य , सन्तान , स्त्री , घर तथा अन्य वस्तुओं की ममता से मुक्ति , अच्छी तथा बुरी घटनाओं के प्रति समभाव , मेरे प्रति निरन्तर अनन्य भक्ति , एकान्त स्थान में रहने की इच्छा , जन समूह से विलगाव , आत्म-साक्षात्कार की महत्ता को स्वीकारना , तथा परम सत्य की दार्शनिक खोज - इन सबका पालन करने वाला ही ज्ञानी कहा जा सकता है और इनके अतिरिक्त जो भी है, वह सब अज्ञान है | जो भी इन नियमों को स्वीकार कर लेता है तो वह ज्ञानी कहलाता है | यहाँ प्रमुख बात यह है कि भक्त तो ज्ञानी बन जाता है परंतु ज्ञानी बनकर भक्त बनना बहुत ही दुष्कर कार्य है |*
*आज के आधुनिक युग में जहाँ विज्ञान नित्य नई सफलता अर्जित कर रहा है वहीं अध्यात्मपथ के पथिकों की संख्या कम होती जा रही है | भक्त एवं ज्ञानी दिखाई तो बहुत पड़ते हैं परंतु अधिकतर सिंह की खाल में सियार ही मिलते है | आज स्वयं को ज्ञानी कहने एवं मानने वालों की एक लम्बी कतार समाज में देखी जा सकती है परंतु यदि भगवान श्रीकृष्ण द्वारा ज्ञानियों के उपरवर्णित लक्षण के विषय में विचार किया जाय तो किसी भी ज्ञानी के भीतर इन बीसों लक्ष्णों में से एक भी नहीं दिखाई पड़ते | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" आज के समाज में देख रहा हूँ कि थोड़ा बहुत ज्ञानार्जन कर लेने के बाद कुछ लोग स्वयं ही स्वयं को ज्ञानी घोषित करने लगते हैं | ऐसे - ऐसे लोग आज समाज में ज्ञानी बनने का ढोंग कर रहे हैं जिनको अपने कर्तव्यों का भी भान नहीं है , जिन्होंने पुस्तकीय ज्ञान तो प्राप्त कर लिया है परंतु मैं स्वयं क्या हूं ? या मेरे कर्तव्य क्या है ? इसका ज्ञान नहीं प्राप्त कर पाये हैं | अपने माता पिता एवं गुरु की अवहेलना करके नित्य बड़े - बड़े ज्ञानवर्धक उपदेश / संदेश देने वाले ज्ञानियों की आज बाढ़ सी आ गयी है | ज्ञान का अर्थ होता है कि ज्ञानी काम - क्रोध - मोहादिक विकारों से स्वयं को बचाकर रखता है परंतु आज के ज्ञानियों में इन सबमें सबसे प्रबल विकार अहंकार की प्रबलता देखी जा रही है | पुस्तकीय ज्ञान प्राप्त करके ज्ञानी बन जाना तो बहुत सरल है परंतु ज्ञानी के लक्षणों से स्वयं को युक्त करना आज के युग में असंभव ही प्रतीत होता है | आज के ज्ञानियों में बात - बात पर क्रोध , एक दूसरे से ईर्ष्या , दूसरों को यथाशीघ्र पददलित करने की कामना अधिक परिलक्षित होती है , जो कि उचित नहीं कही जा सकती | इस पर विचार अवश्य करना चाहिए कि जो लक्षण गीता में भगवान ने बताये हैं क्या हमने उनको आत्मसात करने का प्रयास किया ? यही नहीं तो ज्ञानी कहलवाने का ढोंग करने से कोई ज्ञानी नहीं हो जायेगा |भगवान के दो पुत्र कहे गये हैं :- १- भक्त , २- ज्ञानी | भक्त तो भगवान को प्राप्त हो जाता है परंतु ज्ञानी अपने ज्ञान के चक्रव्यूह में उलझकर रह जाता है | क्योंकि वह पूर्ण ज्ञानी न तो बन पाता है और न ही बनना ही चाहता है | अल्प ज्ञान आ जाने के बाद वह स्वयं को ज्ञानी समझ लेने का दोषी हो जाता है |*
*ज्ञानी होने का प्रथम गुण है विनम्रता | आज बड़ी मुश्किल से इस गुण का दर्शन ज्ञानियों में हो रहा है | सरलता की कमी एवं अहंकार की प्रबलता ही आज के अधिकतर ज्ञानियों की पहचान बन गयी है |*