*इस संसार में मनुष्य ने अपनी कार्यकुशलता से अनहोनी को भी होनी करके दिखाया है | अपनी समझ से कोई भी ऐसा कार्य न बचा होगा जो मनुष्य ने कपने का प्रयास न किया हो | संसार में समय के साथ बड़े से बड़े घाव , गहरे से गहरे गड्ढे भी भर जाते हैं | समुद्र के विषय में बाबा गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानस में लिखा है कि :- "भरहिं निरंतर होंहिं न पूरे" अर्थात संसार में समुद्र ऐसा है जिसमें संसार भर की नदियों का जल निरंतर समाता रहता है परंतु कभी भरता नहीं है , लेकिन कभी-कभी समुद्र में भी लहरें उठ कर के समुद्री तूफान सुनामी आदि के रूप में अपने जल को बाहर फेंक देती है | परंतु इस संसार में यदि कुछ नहीं भरा है तो वह है मनुष्य का मन | मनुष्य का मन कभी संतुष्ट नहीं होता और ना कभी भरता है किसी भी विषय से कुछ क्षण के लिए मनुष्य का मन भर सकता है परंतु थोड़ी देर बाद उसी चीज की कामना इस मन में उत्पन्न होने लगती है , क्योंकि यह मन कभी भी संतुष्ट नहीं होता | और दूसरी चीज है मनुष्य का पेट , जो कभी भी भरता नहीं है | सुबह सोकर उठने के बाद रात में जब तक मनुष्य सो नहीं जाता है तब तक पेट भरने के लिए अनेकों उद्योग किया करता है | इस प्रकार मनुष्य का मन और पेट भी कभी भर नहीं पाता है | संसार के जितने भी कार्य हो रहे हैं पेट भरने के लिए ही हो रहे हैं | यदि मनुष्य के शरीर में यह पेट ना होता और उसको भूख न लगती तो शायद संसार इतना विकास ना कर पाता | मनुष्य भोजन करने बैठता है और जी भर कर खाता है , कभी-कभी पेट तो भर जाता है लेकिन भोजन इतना अच्छा होता है कि उससे मन नहीं भरता | मन यही करता है कि और खा लें परंतु पेट में जगह न होने के कारण मन को मारना पड़ता है | मनुष्य जैसे ही भोजन करके उठता है उसके तुरंत बाद अगले समय के लिए भोजन की व्यवस्था जुट जाता है यही संसार का सत्य है |*
*आज संसार में जितने भी उद्योग धंधे चल रहे हैं , मनुष्य जितने भी कार्य कर रहा है , सब का कारण मनुष्य के शरीर में ईश्वर द्वारा बनाया हुआ उदर (पेट) है | इस शरीर को क्रियान्वित रखने के लिए मनुष्य को ऊर्जा की आवश्यकता होती है और मनुष्य को ऊर्जा भोजन से प्राप्त होती है | भोजन जब पेट में जाता है तब मनुष्य के अंग - प्रत्यंग में नई ऊर्जा का संचार हो जाता है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" इस संसार में रहते हुए यह कह सकता हूं कि चाहे अमीर हो चाहे गरीब , कोई राजा हो या भिखारी सबका ही उद्योग इस पेट के लिए ही होता है | भोजन में अंतर हो सकता है परंतु उद्देश्य इस पेट को भरना ही होता है और यह पेट जब तक मनुष्य के शरीर में प्राण है तब तक घर नहीं पाता | रात्रि में भोजन करके तृप्त हो करके मनुष्य सोता है लेकिन अगले दिन सुबह सोकर उठने के बाद ही मनुष्य के उदर में पुन: जठराग्नि प्रज्वलित हो जाती है और मनुष्य इस पेट को भरने के लिए अपने उद्योग पर निकल पड़ता है | मनुष्य का पेट तो कुछ क्षण के लिए भर भी जाता है परंतु मनुष्य का मन अतृप्त ही रहता है क्योंकि मनुष्य को संतोष कभी नहीं होता | जब तक मनुष्य के मन में संतोष नहीं होता है तब तक मनुष्य काम क्रोध आदि भावनाओं से बच नहीं सकता है , और इनसे बचे बिना कोई भी प्रगति नहीं कर सकता | हमारे महापुरुषों ने अपने मन को नियंत्रित करते हुए इसे संतुष्ट किया है और संतुष्ट करने के बाद ही वे पुरुष से महापुरुष बने हैं |*
*इस संसार में समुद्र , मनुष्य का मन , मनुष्य की तृष्णा एवं मनुष्य का पेट कुछ क्षण के लिए तो भर सकता है परंतु अगले ही पल उसमें पुन: रिक्तता ही प्रतीत होने लगती है |*