मन और संसार एक जाति के हैं। स्वयं और भगवान् एक जाति के हैं। अतः मन भगवान् में नहीं लग सकता, प्रत्युत आप स्वयं ही भगवान् में लग सकते हैं। मन अमन हो सकता है, मिट सकता है, पर भगवान् में नहीं लग सकता। भगवान् को स्वयं से स्वीकार करें, फिर कभी विस्मृति नहीं होगी।
मेरापन अच्छा लगता है, पर यह भार है। मेरापन मिटने से हम हल्के हो जाते हैं, निश्चिन्त हो जाते हैं। वह मेरापन भगवान् के समर्पण कर दें और हल्के हो जायँ। संसार शरीर को मेरा मानते हैं, भगवान् को मेरा नहीं मानते यह मूल भूल है। मूल भूल का सुधार कर लें तो सब ठीक हो जायगा।
संसार के अंश शरीर को संसार की सेवा में लगा दो और भगवान् के अंश स्वयं को भगवान् में लगा दो। आप स्वयं भगवान् में लग जाओगे तो मन, बुद्धि, शरीर, इन्द्रियाँ आदि सब कुछ भगवान् में लग जायगा। आप स्वयं नहीं लगोगे तो भगवान् में न मन लगेगा, न बुद्धि लगेगी, न इन्द्रियाँ लगेंगी, न शरीर लगेगा। ये संसार में लगेंगे, संसार की उपासना करेंगे।