जो तुमने सुनी, सुनी. ..न सुनी. .
मेरे अंतर्मन की पीड़ा थी ....
अनवरत कह रहा हूँ गाथा,
पुष्पों को छंदों में बांधे,
हूँ थका हुआ, नहिं सोया मैं
पलकों से अंजलि दे दे कर ...
मेरे शब्दों में छद्म नहीं
मिटटी में मिलावट क्या होगी ?
अस्फुट शब्दों की भाषा में
झंकार ढूंढते हो क्यों तुम. ...
मैं एक पुजारी मंदिर का
निष्कासित हूँ चौराहे पर,
मैं भिक्षुक नहीं, कतारों में
मत पैसे दे, अपमान करो. ...
अपनों में नहीं मिला कोई?
शायद तुम खोज रहे मुझको !
मैं नहीं युवा पहले जैसा
पहचानो, देखो अंतर्मन. ...
कन्धों पर फटे वस्त्र देखो
है छाप अभी उस चहरे की ,
जो तुमने झुक कर रखा था
पहचानो आज स्वयं को तुम.....
अब भी हाथों के कोनो में,
हैं दाग तुम्हारे आंसू के,
कुछ रोओ , रोकर प्यार करो
भर आएं फिर व्याकुल होके ... ..
दो दशकों से ढो ढो करके
मैं हार गया इस बंधन से
जब जब भी तुमने याद किया
मैं तड़प गया प्रतिबंधन से. ...
झंकृत, तुममे जो गूँज रही
टूटे तारों की वीणा थी,
जो तुमने सुनी, सुनी .....न सुनी
मेरे अंतर्मन की पीड़ा थी ...........