भैंस
“अकल बड़ी या भैंस” सुना जब, मेरा मन चकराया,
भैंस देखने के खातिर मैं, बड़े तबेले आया.
कामराज सा रंग, अंग बैंगन सा सुन्दर पाया
गाय लगे गोरी, शायद इसलिए श्यामली काया.
कमसिन, कठिन कमर, कर कोमल
मूक, मगर विचलित होंठों के दल
अर्ध-वृत्त में मुड़ी दो सींघें
तैल-लिप्त, चमकाती तिल-तिल
भाव-हीन, पगुराता चेहरा
स्नेहिल, मुझे ताकती आँखें,
दोलित करते कान युग्म वो
जैसे ममता की दो पाँखेंं.
सारा बदन, था लिए समाधि
सिर्फ पूंछ और होंठ थे चलते,
कहीं कहीं गोबर लिपटा था
जिस पर मक्खी -झुण्ड मचलते.
दूध गाय का पीकर के तो
बच्चे सिर्फ पचा पाते हैं,
दूध भैंस का पीकर लेकिन
“हिमा दास” सोना लाते हैं.
शांत, शिष्ट , वैचारिक चिंतन
में डूबी रहती है भैंस,
अगल बगल की नहीं है चिंता
ध्यान-मग्न रहती है भैंस.
मुझे लगा जैसे कोई योगी
काला भस्म रमा, सानी में,
अक्ल गयी उनकी चरने जो
कहते,”भैंस गयी पानी में.”