माँ ! तुम होतीं जो आस पास...
जीवन की गाथा में उलझा,
जब सोच सोच कर थक जाता,
तेरे आँचल में मैं सो जाता...माँ तुम होतीं जो
आस पास..
इनकी उनकी कटु वाणी सुन,
जब व्यथित ह्रदय मेरा होता,
कुंठित
मन लिए लौटता घर,
तुम हाथ मेरे सर पर रखतीं,
मन पुनः प्रफुल्लित हो जाता.....माँ ! तुम होतीं
जो आस पास...
इतना जीवन आराम मगर,
सो पाया नहीं बिस्तरों पर,
इस कोलाहल से दूर कहीं,
इक दरी बिछा कर, माथे पर
बस हाथ ज़रा तुम रख देतीं,
मैं बेसुध होकर सो जाता....माँ ! तुम होतीं जो
आस पास...
कितना कुछ तो है पास मेरे,
लेकिन वे स्नेहिल शब्द नहीं-
‘कुछ तो खा ले, क्यों भाग रहा?’
दो कौर खिला देतीं तुम जो,
रोटी अमृत सा खा जाता.....माँ ! तुम होतीं जो आस
पास...
संरक्षण खो कर के तेरा,
हर रिश्ता खोता चला गया,
जैसे जैसे यह उम्र बढी,
मैं बूढ़ा होता चला गया,
बचपन की चपलता, चंचलता,
मैं शायद अब तक रख पाता...माँ ! तुम होतीं जो आस
पास...