सुतहीन करो इस धरती को..
दग्ध देह, धर्षित शरीर,
जलता चमड़ा, वह मूक चीख,
मानव कितना कायर है रे !
पुरुषत्व, नपुंसक का प्रतीक..
जो पुरुष नृशंस हुआ कामी
अब शब्द नहीं उसका निदान,
अब तर्क-वितर्क नहीं कोई
हे भीड़ ! हरो सत्वर वो प्राण...
अब नष्ट करो वह पापात्मा
जो मानव को ना पहचाने,
अधिकार नही जीने का उसे
पर्याय काम, जो स्त्री माने...
हे माओं ! दग्ध दुग्ध कर दो
जन्मे न दुशासन अब कोई,
सुतहीन करो यह कोख प्रथा
निर्भय हो धरा पर सब कोई...
---प्राणेन्द्र नाथ मिश्र