कारगिल शहीद के माँ की अंतर्वेदना :-
यह कविता एक शहीद के माँ का, टीवी में साक्षात्कार देख कर १९९९ में लिखा था ...
२० वर्ष बाद आप के साथ साझा कर रहा हूँ:
हुआ होगा धमाका,
निकली होंगी चिनगारियाँ
बर्फ की चट्टानों पर
फिसले होंगे पैर
बिंधा होगा शरीर
गोलियों की बौछार से ...
अभी भी
कुछ रक्त बिंदु
जमे होंगे बर्फ के अन्दर
बह रहे होंगे आँसू
शांत और मौन
कारगिल की चोटियों से ...
अभी भी
सुनायी देती होगी
युद्ध की प्रतिध्वनि
घायल सैनिकों का गर्जन,
कहीं धूम, कहीं कराह
कहीं मृत्यु, कहीं तर्जन...
मेरे देशवासियों!
वह मेरा बेटा था
जिसे खोया मैंने
एक पल में,
हुयी थी असह्य पीड़ा
मेरे कोख, मेरे आँचल में...
तब,
जब सामने मेरे
शहीद बेटे की लाश
जल रही थी,
और
उसी नदी के किनारे
एक और माँ
आलीशान होटल में
अपने बेटे की
सगाई कर रही थी...
--प्राणेन्द्र नाथ मिश्र
नमन शहीदों की माओं को 🙏🙏🙏