अग्नि-परीक्षा का अभिशाप
कापुरुष हैं बात करते, नीचता से जिस तरह,
राम ! तुम क्यों कर रहे हो, बात मुझसे उस तरह.
वीर हो तुम, वीरता है बस तुम्हारे तीर में,
तुम नहीं समझोगे शक्ति, जो बंधी इस चीर में.
प्रश्न पूँछूँ मै अगर, तुम भी अकेले थे यहाँ,
अपने शुचिता की परीक्षा, तुमने किसको दी, कहाँ?
अर्धांगिनी कहकर मगर दासी सा यह बर्ताव क्यों?
जो कहे नर, माने नारी, तुच्छ यह अधिकार क्यों?
नारी लगाकर दांव में क्यों, खेलते हैं ये पुरुष?
क्या पिता, पति, पुत्र भाई, सबका नारी पर ही अंकुश?
था स्वयंवर वह मेरा, अधिकार पर मेरा नहीं,
तोड़ देता धनुष जो भी, वर मेरा बनता वही.
उस समय थी मै विवश, पर भाग्य था मेरा प्रबल,
भाग्य ही था, मिल गए तुम, जो कि निकले थे सबल.
फिर तुम्हारी धर्म-छाया बन के जीवन-दिन जिए,
पतिव्रता के कर्म जो, जैसे भी हो, मैंने किये.
एक दुष्कृत पुरुष ने सूने में मुझको हर लिया,
मै निहत्थी, विवश पर, प्रतिरोध क्षमता भर किया.
जिसका किया संहार तुमने, दिव्या अस्त्रों के सहारे,
दुर्धर्शु पशु को, एक अबला, किस तरह से, कैसे मारे?
होगे पुरुषोत्तम मगर, पति संशयी हो तुम बड़े,
तुम तो अपने आन की खातिर ही रावण से लडे.
अर्धमृत सी मैं पड़ी थी, यह तो सबको ज्ञात है,
मन में तुम, बस एक तुम, क्या तुम को यह अज्ञात है?
मेरी करुण गाथा कहा, तुमसे न क्या हनुमान ने,
भावना पर विजय कर ली राम ! क्या अभिमान ने?
किसको दिखलाने की खातिर, अग्नि की है यह परीक्षा?
अपवित्र बस होती है नारी, किसने दी है ऎसी शिक्षा?
क्यों कलंकिनी शब्द ही दुहराए जाते हैं यहाँ?
क्या कलंकी पुरुष सारे, देववत होते यहाँ?
सिर्फ पीड़ित होने को जन्मी है नारी क्या यहाँ?
संदिग्ध मै? अविश्वस्त मै? अस्तित्व मेरा है कहाँ?
भ्रष्ट प्रतिमा की तरह, मुझको कलंकित कर दिया,
अपनी अक्षमताओं का सारा दोष, मुझ पर मढ़ दिया.
तुम स्वयं आदर्श हो, यह सिद्ध करने के लिए,
विश्वास मेरा तुमने तोड़ा राम! दुनिया के लिए.
संसार से लड़ने की शक्ति, तुममे शायद है नही,
इसलिए पत्नी-विजय कर, श्रेष्ठ होना ही सही .
पाशविक बल क्या अभी भी सभ्यता की शान है?
धिक्कार ऎसी वीरता, नारी का जो अपमान है.
ठीक है पर, यह दुराग्रह, मै न भूलूंगी कभी,
घोषणा करती हूँ मैं यह, ध्यान से सुन लें सभी.
मैं सती हूँ, अग्नि हूँ मै, शक्ति मै सम्पूर्ण हूँ,
भार ढोती यह धरा मैं, पुरुष की प्रतिपूर्ण हूँ.
पाशविक बल पुरुष में, बढ़ता है, बढ़ता ही रहेगा,
पर भावना की ठोकरों से, वह पराजित हो गिरेगा.
अनुताप का यह बोझ तुमको राम! ढोना ही पड़ेगा,
मुझको पाकर भी तुम्हे, फिर मुझको खोना ही पड़ेगा.
देव-बल लेकर के भी तुम, प्रेमी पराजित ही रहोगे,
विश्व-विजयी जब बनोगे, मुझको खोकर ही बनोगे.
राम हतप्रभ से खड़े, अभिशाप यह सुनते रहे,
क्या करूं सीते ! पुरुष मै, मन ही मन कहते रहे.
है कठिन सबसे अधिक, आदर्श बनना एक पुरुष,
मन में कोमलता भरी पर, हाथ में थामे धनुष.
पुरुषार्थ की सीमा हूँ मै, एक शून्य अहंकार हूँ,
मानवों की भावना, टूटा हुआ संसार हूँ.
तुम धरा हो, धारिणी हो, सृष्टि की जननी हो तुम,
प्रेमिका हो, लाडली हो, और भगिनी भी हो तुम.
हैं तुम्हारे रूप अंगणित, ब्रह्माण्ड की तुम शक्ति हो,
मन ही मन तुमको नमन, नारी स्वयं तुम भक्ति हो.
….from my upcoming 4th book “दुर्गा ! तेरे रूप अनेक.”