मैं अक्षर बन चिर युवा रहूं, मन्त्रों का द्वार बना लो तुम,
हम बंधे बंधे से साथ चलें, मुझे भागीदार बना लो तुम.
जीवन की सारी उपलब्धि, कैसे रखोगे एकाकी?
तुमको संभाल कर मैं रखूँ, मेरे मन में जगह बना लो तुम.
कोई मुक्त नहीं है दुनिया में, ईश्वर, भोगी या संन्यासी,
प्रिय! कैसे मुक्त रह सकोगे, आकर समीप समझा दो तुम
सीमित विवेक, वैचारिकता, इससे कितना, क्या पाओगे?
यह ह्रदय असीमित रस-सागर, इसमें बस खुद को डुबा लो तुम.
छोडो आकांक्षा की छाया, उपजाओ मन में इच्छाएं,
यह सृष्टि प्रेम की अनुयायी, कुछ प्रणय भाव फैला दो तुम.
किसने खोया, किसने पाया, जाते हो तो जाओ लेकिन,
यदि टीस उठे अंतर्मन में, दो आँसू बस ढलका दो तुम.
--प्राणेन्द्र नाथ मिश्र