अंतिम संध्या, अंतिम बेला,
अंतिम किरणों का अन्त्य गीत,
अंतिम पल का यह अंतर्मन
अंतिम पुकार देता, हे मीत !
अंतिम धारा, अंतिम प्रवाह
अंतिम कलरव, अंतिम है कूक
अंतिम बंधन में बाँध रखो
धडकन की अंतिम ह्रदय-हूक.
अंतिम है दृश्य-पटल, यह नाट्य
अंतिम दर्शक, अंतिम समूह,
अंतिम का अंत न कर देना
अंकित कर लो यह छवि दुरूह.
अंतिम का अंत हुआ यदि तो
प्रारब्ध नही हो पायेगा,
अंतिम से जोड़कर आदि रखो
तब दृश्य नया दिखलाएगा.
निःश्वास रखो अंतिम लेकिन
फिर श्वास भरो अंतिम पल में,
मानवता विलगित ना होए
आँखें खोलो नूतन कल में.
अंतिम का अंत हुआ जिस दिन
होगी अंतिम वह सृष्टि क्रिया,
जोड़ो भविष्य से भूत काल
प्रज्वलित रहे संस्कृति-दिया.
कल की मिट्टी से बना दिया
हम आज प्रज्वलित करते हैं,
तुमको प्रणाम, हे विगत वर्ष !
नूतन, अभिनंदित करते हैं...
--प्राणेन्द्र नाथ मिश्र