पिता पर लिखी अपनी एक बहुत पुरानी रचना याद आ गयी..कुछ अंश प्रस्तुत कर रहा हूँ..
"तुमसे हे पिता !"
कितनी मन्नत कितनी पूजा,
कितनी कामना किया होगा,
पुत्रों का पथ हो निष्कंटक
पल पल आशीष दिया होगा...
मेरे लिए कभी तुमने
रूखी सूखी रोटी खायी ,
दरदर भटके मेरी खातिर
संचित की पाई-पाई ..
तुमने कितना कुछ दिया मुझे
मैं तुमको क्या दे पाऊँगा?
जन्मों जन्मों तक जनक मेरे !
मैं याचक बन कर आऊंगा...
मेरा रक्त ऋणी, मेरी श्वास ऋणी,
मैं ऋणी पिता! हर पल तुमसे,
मेरा अस्तित्व तुम्हीं से है
मैं सफल, तुम्हारे कर्मों से..
तुमसे यह जीवन मिला मुझे
तुमने विशाल संसार दिया,
तुसे सीखा पथ पर चलना
तुमने निश्छल व्यवहार दिया..
हे वृद्ध ! बहुत हो आगे तुम,
मैं तुमको क्या छू पाऊँगा?
तुमने जो छोडी चरण धूलि
माथे पे लगा, तर जाऊँगा...
हाय ! आज उन्हीं पुत्रों से जनक !
तुम्हे कष्ट मिला, है बलिहारी!
संवेदना दबाये, पत्थर से,
रहते हो मन कर के भारी ....
धिक्कार तुम्हारे पुत्रों को
धिक्कार सभी उनके विचार,
कर्तव्यहीन, विश्वास हीन
अभिशापित हों, ये बार बार ...
इससे तो अच्छा यह होता
अनपढ़ ही सारे रह जाते,
परिवार, वेदना, पिता , पुत्र
सेवा, सम्बन्ध समझ पाते...
ईश्वर सद्बुद्धि दे उनको
जो वृद्ध कभी तो होएंगे,
अपने बच्चों के बिछोह में
थोड़ा-थोड़ा सा रोयेंगे...
-- प्राणेन्द्र नाथ मिश्र