मेरी कविता " हे पिता ! " के कुछ अंश
....तुमने कितना कुछ दिया मुझे
मैं तुमको क्या दे पाउँगा,
जन्मों जन्मों तक जनक मेरे !
मैं याचक बन कर आउंगा.
कितनी मन्नत, कितनी पूजा,
कितनी कामना किया होगा,
पुत्रों का पथ हो निष्कंटक
पल पल आशीष दिया होगा.
मेरे ही लिए कभी तुमने
रूखी सूखी रोटी खायी,
दर दर भटके मेरी
खातिर
संचित की इक-इक पाई.
मेरा रक्त ऋणी, मेरी श्वास ऋणी
मैं ऋणी पिता ! हर
पल तुमसे,
मेरा अस्तित्व
तुम्ही से है
मैं सफल तुम्हारे
कर्मों से.
तुमसे यह जीवन मिला
मुझे
तुमने विशाल संसार
दिया,
तुमसे सीखा पथ पर
चलना
तुमने निश्छल
व्यवहार दिया.
हे वृद्ध ! बहुत हो
आगे तुम
मैं क्या तुमको छू
पाऊंगा,
तुमने जो छोड़ीं
चरण-धूलि
माथे पे लगा, तर जाउंगा.
हाय ! आज उन्हीं
पुत्रों से जनक !
तुम्हे कष्ट मिला है, बलिहारी !
संवेदना दबाये पत्थर
से,
रहते हो मन करके
भारी.
धिक्कार तुम्हारे
पुत्रों को
धिक्कार सभी उनके विचार,
कर्तव्यहीन, विश्वासहीन,
अभिशापित हों ये
बार-बार.
इससे तो अच्छा यह
होता
अनपढ़ ही सारे रह
जाते,
परिवार, वेदना, पिता-पुत्र
सेवा, सम्बन्ध, समझ पाते.
ईश्वर सद्बुद्धि दे
उनको
जो वृद्ध कभी तो
होएंगे,
अपने बच्चों के
बिछोह में
थोड़ा थोड़ा सा
रोयेंगे......