कुछ भी न सार्थक जीवन में,
मैं बंधा हार के बंधन में,
करबद्ध व्यर्थ ही खड़ा रहा
मंदिर के सूने प्रांगण में. ...
स्वार्थ व्यर्थ, परमार्थ व्यर्थ ,
अवरुद्ध हुआ चीत्कार व्यर्थ,
मैं दीन , दलित सा खड़ा हुआ
अर्चना व्यर्थ, प्रार्थना व्यर्थ. ...
अपने ही पैरों को छूकर
आशीष दे रहे हाथ मेरे ,
मैं भूला, खुद को ढूँढ रहा
कोई न, कभी ना ,साथ मेरे. ...
सम्बन्ध जटिल, अधिकार कुण्ठ
मनु किससे बांटे पीड़ापन ,
दाता श्रेणी में मत गिनना
मैं सतत अकिंचन, हे श्रीमन!
पथ पथ पर अवरोध देख
व्यक्तित्वहीन हो गया हूँ मैं,
कल शून्य, शून्य कल, आज शून्य
बस शून्य, शून्य रह गया हूँ मैं . ...
.........मेरी कविता 'महाप्रलाप' के प्रथम अंश