दुर्गा! तेरे रूप अनेक -
माँ दुर्गा, भिक्षा लेकर के
लौटी माटी के प्रांगण में,
आधे से ज़्यादा शेष हुए
चावल उसके, ऋण-शोधन में…
बाक़ी जो बचे हुए उससे
कैसे पूरा होगा, गणेश !
कार्तिकेय भूख से बिलख रहा
गांजा पीकर बैठे महेश…
इतने अभाव की सीमा में
लक्ष्मी, सरस्वती भी पलती है,
दुर्गा आँसू पी पी कर के
सबका ख़याल तो रखती है…
हे दुर्गा के परिवार जनों !
माँ के आँसू का मोल रखो,
मानव-केन्द्रित हो वैचारिकता
इस धरती का भूगोल रखो…
यह धरती है सजीव प्राणी
इसकी भी अपनी सत्ता है,
इसका अति दोहन करना भी
अगली पीढ़ी की हत्या है….
आओ! पृथ्वी के संग रोओ
अपना अस्तित्व विचार करो,
पग पग प्रणाम कर पृथ्वी को
रोम हर्षित हो, इसे प्यार करो…
पृथ्वी ही अंतिम देवी है
पृथ्वी ममता, पृथ्वी है शक्ति,
संपदा, शक्ति से पूर्ण रहे
हे पुत्रों! इसकी करो युक्ति…
पृथ्वी की मिट्टी से निर्मित
लक्ष्मी गणेश की प्रतिमाएं,
मिट्टी के ही हैं महादेव
काली, दुर्गा की रचनाएं…
इस भूतल पर विचरित करते
थे, कभी कृष्ण और कभी राम,
गौतम, नानक और परमहंस
चलना सीखे, पृथ्वी को थाम…
यह शस्य-श्यामला हरित धरा
कट कट कर लुहूलुहान हुयी,
सब ताल-तलैया सोख सोख
गगन-चुम्बी निर्माण हुयी…
खेतों के, वन के कटने से
पृथ्वी निर्वस्त्रित होती है,
अतिवृष्टि, कंप, भूचाल दिखा
हम सबके सामने रोती है….
पृथ्वी के एका रोने से
प्रतिरोध नहीं कर पाओगे,
नारी बन कर रोओ, हे पुरुष!
तब ही करुणा उपजाओगे…
भ्रूणावस्था में बेबस होकर
कुचली कन्या बन कर रोओ,
अपनों के द्वारा दहन हुयी
नवविवाहिता बन कर रोओ…
विधवा आश्रम बन कर रोओ
रोओ बन कर के त्यक्ता माँ,
रोओ सभीत कन्या बन कर
रोओ पति को कर कर के क्षमा…
रोओ दहेज़ के टुकड़ों पर
रोओ अबोध बिटिया बन कर,
रोओ सरस्वती - पूजा में
एक बेटी, अशिक्षिता बन कर…
या पृथ्वी हो या हो अबला
देती तुमको अंतिम पुकार,
मेरा क्षय, तेरा मृत्यु-दिवस
हे मानव! तेरा ही संहार…
- प्राणेन्द्र नाथ मिश्र