स्वर्गारोहण
छन्द : तिलोकी
शीत-काल था वाष्पमय बना व्योम था।
अवनी-तल में था प्रभूत-कुहरा भरा॥
प्रकृति-वधूटी रही मलिन-वसना बनी।
प्राची सकती थी न खोल मुँह मुसकुरा॥1॥
ऊषा आयी किन्तु विहँस पाई नहीं।
राग-मयी हो बनी विरागमयी रही॥
विकस न पाया दिगंगना-वर-बदन भी।
बात न जाने कौन गयी उससे कही॥2॥
ठण्डी-साँस समीरण भी था भर रहा।
था प्रभात के वैभव पर पाला पड़ा॥
दिन-नायक भी था न निकलना चाहता।
उन पर भी था कु-समय का पहरा कड़ा॥3॥
हरे-भरे-तरुवर मन मारे थे खड़े।
पत्ते कँप-कँप कर थे ऑंसू डालते॥
कलरव करते आज नहीं खग-वृन्द थे।
खोतों से वे मुँह भी थे न निकालते॥4॥
कुछ उँजियाला होता फिर घिरता तिमिर।
यही दशा लगभग दो घण्टे तक रही॥
तदुपरान्त रवि-किरणावलि ने बन सबल।
मानो बातें दिवस-स्वच्छता की कही॥5॥
कुहरा टला दमकने अवधपुरी लगी।
दिवनायक ने दिखलाई निज-दिव्यता॥
जन-कल-कल से हुआ आकलित कुछ-नगर।
भवन-भवन में भूरि-भर-गई-भव्यता॥6॥
अवध-वर-नगर अश्वमेधा-उपलक्ष से।
समधिक-सुन्दरता से था सज्जित हुआ॥
जन-समूह सुन जनक-नन्दिनी-आगमन।
था प्रमोद-पाथोधि में निमज्जित हुआ॥7॥
ऋषि, महर्षि, विबुधों, भूपालों, दर्शकों।
सन्त-महन्तों, गुणियों से था पुर भरा॥
विविध-जनपदों के बहु-विधा-नर वृन्द से।
नगर बन गया देव-नगर था दूसरा॥8॥
आज यही चर्चा थी घर-घर हो रही।
जन-जन चित की उत्कण्ठा थी चौगुनी॥
उत्सुकता थी मूर्तिमन्त बन नाचती।
दर्शन की लालसा हुई थी सौगुनी॥9॥
यदि प्रफुल्ल थी धवल-धाम की धवलता।
पहन कलित-कुसुमावलि-मंजुल-मालिका॥
बहु-वाद्यों की ध्वनियों से हो हो ध्वनित।
अट्टहास तो करती थी अट्टालिका॥10॥
यदि विलोकते पथ थे वातायन-नयन।
सजे-सदन स्वागत-निमित्त तो थे लसे॥
थे समस्त-मन्दिर बहु-मुखरित कीर्ति से।
कनक के कलस उनके थे उल्लसित से॥11॥
कल-कोलाहल से गलियाँ भी थीं भरी।
ललक-भरे-जन जहाँ तहाँ समवेत थे॥
स्वच्छ हुई सड़कें थीं, सुरभित-सुरभि से-
बने चौरहे भी चारुता-निकेत थे॥12॥
राजमार्ग पर जो बहु-फाटक थे बने।
कारु-कार्य उनके अतीव-रमणीय थे॥
थीं झालरें लटकती मुक्ता-दाम की।
कनक-तार के काम परम-कमनीय थे॥13॥
लगी जो ध्वजायें थी परम-अलंकृता।
विविध-स्थलों मन्दिरों पर तरुवरों पर॥
कर नर्तन कर शुभागमन-संकेत-बहु॥
दिखा रही थीं दृश्य बड़े ही मुग्धकर॥14॥
सलिल-पूर्ण नव-आम्र-पल्लवों से सजे।
पुर-द्वारों पर कान्त-कलस जो थे लसे॥
वे यह व्यंजित करते थे मुझमें, मधुर-
मंगल-मूलक-भाव मनों के हैं बसे॥15॥