shabd-logo

अष्टदश सर्ग / भाग -1

8 जून 2022

17 बार देखा गया 17

स्वर्गारोहण

छन्द : तिलोकी


शीत-काल था वाष्पमय बना व्योम था।

अवनी-तल में था प्रभूत-कुहरा भरा॥

प्रकृति-वधूटी रही मलिन-वसना बनी।

प्राची सकती थी न खोल मुँह मुसकुरा॥1॥


ऊषा आयी किन्तु विहँस पाई नहीं।

राग-मयी हो बनी विरागमयी रही॥

विकस न पाया दिगंगना-वर-बदन भी।

बात न जाने कौन गयी उससे कही॥2॥


ठण्डी-साँस समीरण भी था भर रहा।

था प्रभात के वैभव पर पाला पड़ा॥

दिन-नायक भी था न निकलना चाहता।

उन पर भी था कु-समय का पहरा कड़ा॥3॥


हरे-भरे-तरुवर मन मारे थे खड़े।

पत्ते कँप-कँप कर थे ऑंसू डालते॥

कलरव करते आज नहीं खग-वृन्द थे।

खोतों से वे मुँह भी थे न निकालते॥4॥


कुछ उँजियाला होता फिर घिरता तिमिर।

यही दशा लगभग दो घण्टे तक रही॥

तदुपरान्त रवि-किरणावलि ने बन सबल।

मानो बातें दिवस-स्वच्छता की कही॥5॥


कुहरा टला दमकने अवधपुरी लगी।

दिवनायक ने दिखलाई निज-दिव्यता॥

जन-कल-कल से हुआ आकलित कुछ-नगर।

भवन-भवन में भूरि-भर-गई-भव्यता॥6॥


अवध-वर-नगर अश्वमेधा-उपलक्ष से।

समधिक-सुन्दरता से था सज्जित हुआ॥

जन-समूह सुन जनक-नन्दिनी-आगमन।

था प्रमोद-पाथोधि में निमज्जित हुआ॥7॥


ऋषि, महर्षि, विबुधों, भूपालों, दर्शकों।

सन्त-महन्तों, गुणियों से था पुर भरा॥

विविध-जनपदों के बहु-विधा-नर वृन्द से।

नगर बन गया देव-नगर था दूसरा॥8॥


आज यही चर्चा थी घर-घर हो रही।

जन-जन चित की उत्कण्ठा थी चौगुनी॥

उत्सुकता थी मूर्तिमन्त बन नाचती।

दर्शन की लालसा हुई थी सौगुनी॥9॥


यदि प्रफुल्ल थी धवल-धाम की धवलता।

पहन कलित-कुसुमावलि-मंजुल-मालिका॥

बहु-वाद्यों की ध्वनियों से हो हो ध्वनित।

अट्टहास तो करती थी अट्टालिका॥10॥


यदि विलोकते पथ थे वातायन-नयन।

सजे-सदन स्वागत-निमित्त तो थे लसे॥

थे समस्त-मन्दिर बहु-मुखरित कीर्ति से।

कनक के कलस उनके थे उल्लसित से॥11॥


कल-कोलाहल से गलियाँ भी थीं भरी।

ललक-भरे-जन जहाँ तहाँ समवेत थे॥

स्वच्छ हुई सड़कें थीं, सुरभित-सुरभि से-

बने चौरहे भी चारुता-निकेत थे॥12॥


राजमार्ग पर जो बहु-फाटक थे बने।

कारु-कार्य उनके अतीव-रमणीय थे॥

थीं झालरें लटकती मुक्ता-दाम की।

कनक-तार के काम परम-कमनीय थे॥13॥


लगी जो ध्वजायें थी परम-अलंकृता।

विविध-स्थलों मन्दिरों पर तरुवरों पर॥

कर नर्तन कर शुभागमन-संकेत-बहु॥

दिखा रही थीं दृश्य बड़े ही मुग्धकर॥14॥


सलिल-पूर्ण नव-आम्र-पल्लवों से सजे।

पुर-द्वारों पर कान्त-कलस जो थे लसे॥

वे यह व्यंजित करते थे मुझमें, मधुर-

मंगल-मूलक-भाव मनों के हैं बसे॥15॥

79
रचनाएँ
वैदेही वनवास
0.0
यह उनकी विशेषता है कि उन्होंने कृष्ण-राधा, राम-सीता से संबंधित विषयों के साथ-साथ आधुनिक समस्याओं को भी लिया है और उन पर नवीन ढंग से अपने विचार प्रस्तुत किए हैं। प्राचीन और आधुनिक भावों के मिश्रण से उनके काव्य में एक अद्भुत चमत्कार उत्पन्न हो गया है।
1

वैदेही वनवास

8 जून 2022
1
0
0

महर्षिकल्प, महामना, परमपूज्य कुलपति श्रीमान् पंडित मदनमोहन मालवीय के पवित्र करकमलों में सादर समर्पित वक्तव्य करुणरस करुणरस द्रवीभूत हृदय का वह सरस-प्रवाह है, जिससे सहृदयता क्यारी सिंचित, मानवता फ

2

प्रथम सर्ग / भाग -1

8 जून 2022
1
0
0

 उपवन छन्द : रोला लोक-रंजिनी उषा-सुन्दरी रंजन-रत थी। नभ-तल था अनुराग-रँगा आभा-निर्गत थी॥ धीरे-धीरे तिरोभूत तामस होता था। ज्योति-बीज प्राची-प्रदेश में दिव बोता था॥1॥ किरणों का आगमन देख ऊषा मुसकाई

3

भाग -2

8 जून 2022
0
0
0

हैं प्रभात उत्फुल्ल-मूर्ति कुसुमों में पाते। आहा! वे कैसे हैं फूले नहीं समाते॥ मानो वे हैं महानन्द-धरा में बहते। खोल-खोल मुख वर-विनोद-बातें हैं कहते॥21॥ है उसकी माधुरी विहग-रट में मिल पाती। जो

4

भाग -3

8 जून 2022
0
0
0

भस्म हो गये प्रिय स्वजनों का तन अवलोके। उनकी दुर्गति का वर्णन करना रो रो के॥ बहुत कलपना उसको जो था वारि न पाता। जब होता है याद चित व्यथित है हो जाता॥41॥ समर-समय की महालोक संहारक लीला। रण भू का

5

भाग -4

8 जून 2022
0
0
0

तो समीर को दोषी कैसे विश्व कहेगा। है वह अपचिति-रत न अत: निर्दोष रहेगा॥ है स्वभावत: प्रकृति विश्वहित में रत रहती। इसीलिए है विविध स्वरूपवती अति महती॥61॥ पंचभूत उसकी प्रवृत्ति के हैं परिचायक। हैं

6

द्वितीय सर्ग / भाग -1

8 जून 2022
0
0
0

छन्द : चतुष्पद अवध के राज मन्दिरों मध्य। एक आलय था बहु-छबि-धाम॥ खिंचे थे जिसमें ऐसे चित्र। जो कहाते थे लोक-ललाम॥1॥ दिव्य-तम कारु-कार्य अवलोक। अलौकिक होता था आनन्द॥ रत्नमय पच्चीकारी देख। दि

7

भाग -2

8 जून 2022
0
0
0

दारु का लगा हुआ अम्बार। परम-पावक-मय बन हो लाल॥ जल रहा था धू-धू ध्वनि साथ। ज्वालमाला से हो विकराल॥21॥ एक स्वर्गीय-सुन्दरी स्वच्छ- पूततम-वसन किये परिधान॥ कर रही थी उसमें सुप्रवेश। कमल-मुख था उत

8

भाग -3

8 जून 2022
0
0
0

नहीं सकती जो पर दुख देख। हृदय जिसका है परम-उदार॥ सर्व जन सुख संकलन निमित्त। भरा है जिसके उर में प्यार॥41॥ सरलता की जो है प्रतिमूर्ति। सहजता है जिसकी प्रिय-नीति॥ बड़े कोमल हैं जिसके भाव। परम-प

9

भाग -4

8 जून 2022
0
0
0

कर रहे हैं सब कर्म स्वकीय। समझ कर वर्णाश्रम का मर्म॥ बन गये हैं मर्यादा-शील। धृति सहित धारण करके धर्म॥61॥ विलसती है घर-घर में शान्ति। भरा है जन-जन में आनन्द॥ कहीं है कलह न कपटाचार। न निन्दित-

10

तृतीय सर्ग / भाग -1

8 जून 2022
0
0
0

मन्त्रणा गृह छन्द : चतुष्पद मन्त्रणा गृह में प्रात:काल। भरत लक्ष्मण रिपुसूदन संग॥ राम बैठे थे चिन्ता-मग्न। छिड़ा था जनकात्मजा प्रसंग॥1॥ कथन दुर्मुख का आद्योपान्त। राम ने सुना, कही यह बात॥

11

भाग -2

8 जून 2022
0
0
0

शान्ति-मय-वातावरण विलोक। रुचिर चर्चा है चारों ओर॥ कीर्ति-राका-रजनी को देख। विपुल-पुलकित है लोक चकोर॥21॥ किन्तु देखे राकेन्दु विकास। सुखित कब हो पाता है कोक॥ फूटती है उलूक की ऑंख। दिव्यता दिनम

12

भाग -3

8 जून 2022
0
0
0

किये पग-लेहन, हो, कर-बध्द। कुजन का होता था प्रतिपाल॥ सुजन पर बिना किये अपराध। बलायें दी जाती थीं डाल॥41॥ अधमता का उड़ता था केतु। सदाशयता पाती थी शूल॥ सदाचारी की खिंचती खाल। कदाचारी पर चढ़ते फ

13

भाग -4

8 जून 2022
0
0
0

प्रमादी होंगे ही कितने। मसल मैं उनको सकता हूँ॥ क्यों न बकनेवाले समझें। बहक कर क्या मैं बकता हूँ॥61॥ अंधा अंधापन से दिव की। न दिवता कम होगी जौ भर॥ धूल जिसने रवि पर फेंकी। गिरी वह उसके ही मुँह

14

भाग -5

8 जून 2022
0
0
0

बन्धुओं की सब बातें सुन। सकल प्रस्तुत विषयों को ले॥ समझ, गंभीर गिरा द्वारा। जानकी-जीवन-धन बोले॥81॥ राज पद कर्तव्यों का पथ। गहन है, है अशान्ति आलय॥ क्रान्ति उसमें है दिखलाती। भरा होता है उसमें

15

चतुर्थ सर्ग / भाग -1

8 जून 2022
0
0
0

वसिष्ठाश्रम छंद : तिलोकी अवधपुरी के निकट मनोरम-भूमि में। एक दिव्य-तम-आश्रम था शुचिता-सदन॥ बड़ी अलौकिक-शान्ति वहाँ थी राजती। दिखलाता था विपुल-विकच भव का वदन॥1॥ प्रकृति वहाँ थी रुचिर दिखाती सर

16

भाग -2

8 जून 2022
0
0
0

वेद-ध्वनि से मुखरित वातावरण था। स्वर-लहरी स्वर्गिक-विभूति से थी भरी॥ अति-उदात्त कोमलतामय-आलाप था। मंजुल-लय थी हृत्तांत्री झंकृत करी॥16॥ धीरे-धीरे तिमिर-पुंज था टल रहा। रवि-स्वागत को उषासुन्दरी

17

भाग -3

8 जून 2022
0
0
0

कभी व्यथित हो कभी वारि दृग में भरे। कभी हृदय के उद्वेगों का कर दमन॥ बातें रघुकुल-रवि की गुरुवर ने सुनीं। कभी धीर गंभीर नितान्त-अधीर बन॥31॥ कभी मलिन-तम मुख-मण्डल था दीखता। उर में बहते थे अशान्ति

18

भाग -4

8 जून 2022
0
0
0

जो हलचल लोकापवाद आधार से। है उत्पन्न हुई, दुरन्त है हो, रही॥ उसका उन्मूलन प्रधान-कर्तव्य है। किन्तु आप को दमन-नीति प्रिय है नहीं॥46॥ यद्यपि इतनी राजशक्ति है बलवती। कर देगी उसका विनाश वह शीघ्र त

19

पंचम सर्ग / भाग -1

8 जून 2022
0
0
0

सती सीता छंद : ताटंक प्रकृति-सुन्दरी विहँस रही थी चन्द्रानन था दमक रहा। परम-दिव्य बन कान्त-अंक में तारक-चय था चमक रहा॥ पहन श्वेत-साटिका सिता की वह लसिता दिखलाती थी। ले ले सुधा-सुधा-कर-कर से वसु

20

भाग -2

8 जून 2022
0
0
0

देख जनक-तनया का आनन सुन उनकी बातें सारी। बोल सके कुछ काल तक नहीं अखिल-लोक के हितकारी॥ फिर बोले गम्भीर भाव से अहह प्रिये क्या बतलाऊँ। है सामने कठोर समस्या कैसे भला न घबराऊँ॥16॥ इतना कह लोकापवाद क

21

भाग -3

8 जून 2022
0
0
0

आकुलताएँ बार-बार आ मुझको बहुत सताएँगी। किन्तु धर्म-पथ में धृति-धारण का सन्देश सुनाएँगी॥ अन्तस्तल की विविध-वृत्तियाँ बहुधा व्यथित बनाएँगी। किन्तु वंद्यता विबुध-वृन्द-वन्दित की बतला जाएँगी॥31॥ लगी

22

भाग -4

8 जून 2022
0
0
0

पर अब तो मैं देख रहा हूँ भाग रही है घन-माला। बदले हवा समय ने आकर रजनी का संकट टाला॥ यथा समय आशा है यों ही दूर धर्म-संकट होगा। मिले आत्मबल, आतप में सामने खड़ा वर-वट होगा॥46॥ चौपदे जिससे अपकीर्

23

षष्ठ सर्ग / भाग -1

8 जून 2022
0
0
0

कातरोक्ति छन्द : पादाकुलक प्रवहमान प्रात:-समीर था। उसकी गति में थी मंथरता॥ रजनी-मणिमाला थी टूटी। पर प्राची थी प्रभा-विरहिता॥1॥ छोटे-छोटे घन के टुकड़े। घूम रहे थे नभ-मण्डल में॥ मलिना-छाया प

24

भाग -2

8 जून 2022
0
0
0

मंगल-मूलक महत्कार्य है। है विभूतिमय यह शुभ-यात्रा॥ पूरित इसके अवयव में है। प्रफुल्लता की पूरी मात्र॥21॥ किन्तु नहीं रोके रुकता है। ऑंसू ऑंखों में है आता॥ समझाती हूँ पर मेरा मन। मेरी बात नहीं

25

भाग -3

8 जून 2022
0
0
0

रघुनन्दन है धीर-धुरंधर। धर्म प्राण है भव-हित-रत है॥ लोकाराधन में है तत्पर। सत्य-संध है सत्य-व्रत है॥41॥ नीति-निपुण है न्याय-निरत है। परम-उदार महान-हृदय है॥ पर उसको भी गूढ़ समस्या। विचलित करती

26

भाग -4

8 जून 2022
0
0
0

जो उलझन सम्मुख आई। उसको तुमने सुलझाया॥ जो ग्रंथि न खुलती, उसको। तुमने ही खोल दिखाया॥61॥ अवलोक तुमारा आनन। है शान्ति चित्त में होती॥ हृदयों में बीज सुरुचि का। है सूक्ति तुमारी बोती॥62॥ स्वा

27

सप्तम सर्ग / भाग -1

8 जून 2022
0
0
0

मंगल यात्रा छन्द : मत्तसमक अवध पुरी आज सज्जिता है। बनी हुई दिव्य-सुन्दरी है॥ विहँस रही है विकास पाकर। अटा अटा में छटा भरी है॥1॥ दमक रहा है नगर, नागरिक। प्रवाह में मोद के बहे हैं॥ गली-गली ह

28

भाग -2

8 जून 2022
0
0
0

खड़ा हुआ सामने सुरथ था। सजा हुआ देवयान जैसा॥ उसे सती ने विलोक सोचा। प्रयाण में अब विलम्ब कैसा॥21॥ वसिष्ठ देवादि को विनय से। प्रणाम कर कान्त पास आई॥ इसी समय नन्दिनी जनक की। अतीव-विह्वल हुई दिख

29

भाग -3

8 जून 2022
0
0
0

चला वेग से अपूर्व स्यंदन। चली गयी यत्र तत्र जनता॥ विचार-मग्न हुईं जनकजा। बड़ी विषम थी विषय-गहनता॥41॥ कभी सुमित्र-सुअन ऊबकर। वदन जनकजा का विलोकते॥ कभी दिखाते नितान्त-चिन्तित। कभी विलोचन-वारि र

30

भाग -4

8 जून 2022
0
0
0

विचित्रता तो भला कौन है। स्वभाव का यह स्वभाव ही है॥ कब न वारि बरसे पयोद बन। समुद्र की ओर सरि बही है॥61॥ वियोग का काल है अनिश्चित। व्यथा-कथा वेदनामयी है॥ बहु-गुणावली रूप-माधुरी। रोम-रोम में रम

31

अष्ठम सर्ग / भाग-1

8 जून 2022
0
0
0

आश्रम-प्रवेश छन्द : तिलोकी था प्रभात का काल गगन-तल लाल था। अवनी थी अति-ललित-लालिमा से लसी॥ कानन के हरिताभ-दलों की कालिमा। जाती थी अरुणाभ-कसौटी पर कसी॥1॥ ऊँचे-ऊँचे विपुल-शाल-तरु शिर उठा। गगन

32

भाग -2

8 जून 2022
0
0
0

इसी समय अति-उत्तम एक कुटीर में। जो नितान्त-एकान्त-स्थल में थी बनी॥ थीं कर रही प्रवेश साथ सौमित्रा के। परम-धीर-गति से विदेह की नन्दिनी॥16॥ कुछ चल कर ही शान्त-मूर्ति-मुनिवर्य्य की। उन्हें दिखाई प

33

भाग -3

8 जून 2022
0
0
0

किसी चक्रवर्ती की पत्नी आप हैं। या लालित हैं महामना मिथिलेश की॥ इस विचार से हैं न पूजिता वंदिता। आप अर्चिता हैं अलौकिकादर्श से॥31॥ रत्न-जटिल-हिन्दोल में पली आप थीं। प्यारी-पुत्तालिका थीं मैना द

34

भाग -4

8 जून 2022
0
0
0

उस लंका में एक तरु तले आपने। कितनी अंधियाली रातें दी हैं बिता॥ अकली नाना दानवियों के बीच में। बहुश:-उत्पातों से हो हो शंकिता॥46॥ कितनी फैला बदन निगलना चाहतीं। कितनी बन विकराल बनातीं चिन्तिता॥

35

नवम सर्ग / भाग -1

8 जून 2022
0
0
0

अवध धाम छन्द : तिलोकी था संध्या का समय भवन मणिगण दमक। दीपक-पुंज समान जगमगा रहे थे॥ तोरण पर अति-मधुर-वाद्य था बज रहा। सौधों में स्वर सरस-स्रोत से बहे थे॥1॥ काली चादर ओढ़ रही थी यामिनी। जिसमे

36

भाग -2

8 जून 2022
0
0
0

फिर भी प्रभु की स्मृति, दर्शन की लालसा। उन्हें बनाती रहती है व्यथिता अधिक॥ यह स्वाभाविकता है उस सद्भाव की। जो आजन्म रहा सतीत्व-पथ का पथिक॥21॥ जिसने अपनी वर-विभूति-विभुता दिखा। रज समान लंका के व

37

भाग -3

8 जून 2022
0
0
0

कहा राम ने आज राज्य जो सुखित है। जो वह मिलता है इतना फूला फला॥ जो कमला की उस पर है इतनी कृपा। जो होता रहता है जन-जन का भला॥41॥ अवध पुरी है जो सुर-पुरी सदृश लसी। जो उसमें है इतनी शान्ति विराजती॥

38

भाग -4

8 जून 2022
0
0
0

है वह मनुज न, जिसमें मिली न मनुजता। अनीति रत में कहाँ नीति-अस्तित्व है॥ वह है नरपति नहीं जो नहीं जानता। नरपतित्व का क्या उत्तरदायित्व है॥61॥ कोई सज्जन, ज्ञानमान, मतिमान, नर। यथा-शक्ति परहित करन

39

दशम सर्ग / भाग -1

8 जून 2022
0
0
0

तपस्विनी आश्रम छन्द : चौपदे प्रकृति का नीलाम्बर उतरे। श्वेत-साड़ी उसने पाई॥ हटा घन-घूँघट शरदाभा। विहँसती महि में थी आई॥1॥ मलिनता दूर हुए तन की। दिशा थी बनी विकच-वदना॥ अधर में मंजु-नीलिमामय

40

भाग -2

8 जून 2022
0
0
0

कहने लगीं सिते! सीता भी। क्या तुम जैसी ही शुचि होगी॥ क्या तुम जैसी ही उसमें भी। भव-हित-रता दिव्य-रुचि होगी॥21॥ तमा-तमा है तमोमयी है। भाव सपत्नी का है रखती॥ कभी तुमारी पूत-प्रीति की। स्वाभाविक

41

भाग -3

8 जून 2022
0
0
0

बना सकी है भाग्य-शालिनी, ऐ सुभगे तुमको जैसी। त्रिभुवन में अवलोक न पाई, मैं अब तक कोई वैसी॥41॥ इस धरती से कई लाख कोसों- पर कान्त तुमारा है। किन्तु बीच में कभी नहीं। बहती वियोग की धारा है॥42॥

42

भाग -4

8 जून 2022
0
0
0

मैं हूँ अति-साधारण नारी, कैसे वैसी मैं हूँगी। तुम जैसी महती व्यापकता, उदारता क्यों पाऊँगी॥61॥ फिर भी आजीवन मैं जनता- का हित करती आयी हूँ। अनहित औरों का अवलोके, कब न बहुत घबराई हूँ॥62॥ जान

43

एकादश सर्ग / भाग -1

8 जून 2022
0
0
0

रिपुसूदनागमन छन्द : सखी बादल थे नभ में छाये। बदला था रंग समय का॥ थी प्रकृति भरी करुणा में। कर उपचय मेघ-निचय का॥1॥ वे विविध-रूप धारण कर। नभ-तल में घूम रहे थे॥ गिरि के ऊँचे शिखरों को। गौरव

44

भाग -2

8 जून 2022
0
0
0

वे सुखित हुए जो बहुधा। प्यासे रह-रह कर तरसे॥ झूमते हुए बादल के। रिमझिम-रिमझिम जल बरसे॥21॥ तप-ऋतु में जो थे आकुल। वे आज हैं फले-फूले॥ वारिद का बदन विलोके। बासर विपत्ति के भूले॥22॥ तरु-खग-चय

45

भाग -3

8 जून 2022
0
0
0

पुर नगर ग्राम कब उजड़े। कब कहाँ आपदा आई॥ अपवाद लगाकर यों ही। कब जनता गयी सताई॥41॥ प्रियतम समान जन-रंजन। भव-हित-रत कौन दिखाया॥ पर सुख निमित्त कब किसने। दुख को यों गले लगाया॥42॥ घन गरज-गरज क

46

भाग -4

8 जून 2022
0
0
0

बोले रिपुसूदन आर्य्ये। हैं धीर धुरंधर प्रभुवर॥ नीतिज्ञ, न्यायरत, संयत। लोकाराधन में तत्पर॥61॥ गुरु-भार उन्हीं पर सारे- साम्राज्य-संयमन का है॥ तन मन से भव-हित-साधन। व्रत उनके जीवन का है॥62॥

47

भाग -5

8 जून 2022
0
0
0

करती रहती हैं सादर। थीं आप जिन्हें नित करती॥ सच्चे जी से वे सारे। दुखियों का दुख हैं हरती॥81॥ माताओं की सेवायें। है बड़े लगन से होती॥ फिर भी उनकी ममता नित। है आपके लिए रोती॥82॥ सब हो पर को

48

द्वादश सर्ग / भाग- 1

8 जून 2022
0
0
0

नामकरण-संस्कार छन्द : तिलोकी शान्ति-निकेतन के समीप ही सामने। जो देवालय था सुरपुर सा दिव्यतम॥ आज सुसज्जित हो वह सुमन-समूह से। बना हुआ है परम-कान्त ऋतुकान्त-सम॥1॥ ब्रह्मचारियों का दल उसमें बैठ

49

भाग -2

8 जून 2022
0
0
0

मन का नियमन प्रति-पालन शुचि-नीति का। प्रजा-पुंज-अनुरंजन भव-हित-साधना॥ कौन कर सका भू में रघुकुल-तिलक सा। आत्म-सुखों को त्याग लोक-अराधना॥16॥ देवि अन्यतम-मूर्ति उन्हीं की आपको। युगल-सुअन के रूप मे

50

भाग -3

8 जून 2022
0
0
0

बेले के अलबेलेपन में आज थी। किसी बड़े-अलबेले की विलसी छटा॥ श्याम-घटा-कुसुमावलि श्यामलता मिले। बनी हुई थी सावन की सरसा घटा॥31॥ यदि प्रफुल्ल हो हो कलिकायें कुन्द की। मधुर हँस हँस कर थीं दाँत निका

51

भाग -4

8 जून 2022
0
0
0

एक बनी श्यामली-मूर्ति की प्रेमिका। तो द्वितीय उर-मध्य बसी गौरांगिनी॥ दोनों की चित-वृत्ति अचांचक-पूत रह। किसी छलकती छबि के द्वारा थी छिनी॥46॥ उपवन था इस समय बना आनन्द-वन। सुमनस-मानस हरते थे सारे

52

त्रयोदश सर्ग / भाग -1

8 जून 2022
0
0
0

जीवन-यात्रा छन्द : तिलोकी तपस्विनी-आश्रम के लिए विदेहजा। पुण्यमयी-पावन-प्रवृत्ति की पूर्ति थीं॥ तपस्विनी-गण की आदरमय-दृष्टि में। मानवता-ममता की महती-मूर्ति थीं॥1॥ ब्रह्मचर्य-रत वाल्मीकाश्रम-

53

भाग -2

8 जून 2022
0
0
0

जनक-नन्दिनी ने सादर-कर-वन्दना। बड़े प्रेम से उनको उचितासन दिया॥ फिर यह सविनय परम-मधुर-स्वर सेकहा। बहुत दिनों पर आपने पदार्पण किया॥21॥ आत्रेयी बोलीं हूँ क्षमाधिकारिणी। आई हूँ मैं आज कुछ कथन के ल

54

भाग -3

8 जून 2022
0
0
0

आह! दूसरे दिवस सुना जो आपने। किसका नहीं कलेजा उसको सुन छिला॥ कैकेई-सुत-राज्य पा गये राम को। कानन-वास चतुर्दश-वत्सर का मिला॥41॥ कहाँ किस समय ऐसी दुर्घटना हुई। कहते हैं इतिहास कलेजा थामकर॥ वृथा

55

भाग -4

8 जून 2022
0
0
0

रघुकुल-पुंगव सब बातें हैं जानते। इसीलिए हैं आप यहाँ भेजी गईं॥ कुलपति ने भी उस दिन था यह ही कहा। देख रही हूँ आप अब यहीं की हुईं॥61॥ आप सती हैं, हैं कर्तव्य-परायणा। सब सह लेंगी कृति से च्युत होंग

56

भाग -5

8 जून 2022
0
0
0

जब उसका दर्शन भी दुर्लभ हो गया। जो जीवन का सम्बल अवलम्बन रहा॥ तो आवेग बनायें क्यों आकुल नहीं। कैसे तो उद्वेग वेग जाये सहा॥81॥ भूल न पाईं वे बातें ममतामयी। प्रीति-सुधा से सिक्त सर्वदा जो रहीं॥

57

चतुर्दश सर्ग / भाग -1

8 जून 2022
0
0
0

दाम्पत्य-दिव्यता छन्द : तिलोकी प्रकृति-सुन्दरी रही दिव्य-वसना बनी। कुसुमाकर द्वारा कुसुमित कान्तार था॥ मंद मंद थी रही विहँसती दिग्वधू। फूलों के मिष समुत्फुल्ल संसार था॥1॥ मलयानिल बह मंद मंद

58

भाग -2

8 जून 2022
0
0
0

कभी मधु-मधुरिमा से बनती छबिमयी। कभी निछावर करती थी मुक्तावली॥ सजी-साटिका पहनाती थी अवनि को। विविध-कुसुम-कुल-कलिता हरित-तृणावली॥21॥ दिये हरित-दल उन्हें लाल जोड़े मिलें। या अनुरक्ति-अरुणिमा ऊपर आ

59

भाग -3

8 जून 2022
0
0
0

यह थी विदुषी-ब्रह्मचारिणी प्रायश:। मिलती रहती थी अवनी-नन्दिनी से॥ तर्क-वितर्क उठा बहु-बातें-हितकरी। सीखा करती थी सत्पथ-संगिनी से॥41॥ आया देख उसे सादर महिसुता ने। बैठाला फिर सत्यवती से यह कहा॥

60

भाग -4

8 जून 2022
0
0
0

किसी काल में क्या ऐसा होगा नहीं। क्या इतनी महती न बनेगी मनुजता॥ सदन-सदन जिससे बन जाये सुर-सदन। क्या बुध-वृन्द न देंगे ऐसी विधि बता॥61॥ अति-पावन-बन्धन में जो विधि से बँधो। क्यों उनमें न प्रतीति-

61

भाग - 5

8 जून 2022
0
0
0

अन्तराय ए साधन हैं ऐसे सबल। जो प्राणी को हैं पचड़ों में डालते॥ पंच-भूत भी अल्प प्रपंची हैं नहीं। वे भी कब हैं तम में दीपक बालते॥81॥ ऐसे अवसर पर प्राणी को बन प्रबल। आत्म-शक्ति की शक्ति दिखाना चा

62

भाग -6

8 जून 2022
0
0
0

जिस पर सरस बरस जाने ही के लिए। कोमल से भी कोमल कलित-कुसुम बने॥ उसको किसी विशिख से बन वे क्यों लगें। रहे वचन जो सदा सुधारस में सने॥101॥ अकमनीय कैसे कमनीय प्रवृत्ति हो। बड़ी चूक है उसे नहीं जो रो

63

भाग -7

8 जून 2022
0
0
0

सभी उलझनें सुलझायें हैं सुलझती। गाँठ डालने पर पड़ जाती गाँठ है॥ रस के रखने से ही रस रह सका है। हरा भरा कब होता उकठा-काठ है॥121॥ मर्यादा, कुल-शील, लोक-लज्जा तथा। क्षमा, दया, सभ्यता, शिष्टता, सरल

64

भाग -8

8 जून 2022
0
0
0

इन्हीं पापमय कर्मों के अतिरेक से। ध्वंस हुई कंचन-विरचित-लंकापुरी॥ जिससे कम्पित होते सदा सुरेश थे। धूल में मिली प्रबल-शक्ति वह आसुरी॥141॥ प्राणी के अयथा-आहार-विहार से। उसकी प्रकृति कुपित होकर जै

65

पंचदश सर्ग / भाग -1

8 जून 2022
0
0
0

सुतवती सीता छन्द : तिलोकी परम-सरसता से प्रवाहिता सुरसरी। कल-कल रव से कलित-कीर्ति थीं गा रही॥ किसी अलौकिक-कीर्तिमान-लोकेश की। लहरें उठ थीं ललित-नृत्य दिखला रही॥1॥ अरुण-अरुणिमा उषा-रंगिणी-लालि

66

भाग -2

8 जून 2022
0
0
0

लव बोले आयेगा मुझको छीनने- जो, मैं मारूँगा उसको दूँगा डरा॥ कहा जनकजा ने क्यों ऐसा करोगे। इसीलिए न कि अनुचित करना है बुरा॥21॥ फिर तुम क्यों अनुचित करना चाहते हो। कभी किसी को नहीं सताना चाहिए॥ उ

67

भाग -3

8 जून 2022
0
0
0

तरु वर्षा-शीतातप को सहकर स्वयं। शरणागत को करते आश्रय दान हैं॥ प्रात: कलरव से होता यह ज्ञात है। खगकुल करते उनका गौरव-गान हैं॥41॥ पाता है उपहार 'प्रहारक, फलों का- किससे, किसका मर्मस्पर्शी मौन है॥

68

भाग - 4

8 जून 2022
0
0
0

है उपकार-परायणा सुकृति-पूरिता। इसीलिए है ब्रह्म-कमण्डल-वासिनी॥ है कल्याण-स्वरूपा भव-हित-कारिणी। इसीलिए वह है शिव-शीश-विलासिनी॥61॥ है सित-वसना सरसा परमा-सुन्दरी। देवी बनती है उससे मिल मानवी॥ उस

69

षोडश सर्ग / भाग -1

8 जून 2022
0
0
0

शुभ सम्वाद छन्द : तिलोकी दिनकर किरणें अब न आग थीं बरसती। अब न तप्त-तावा थी बनी वसुन्धरा॥ धूप जलाती थी न ज्वाल-माला-सदृश। वातावरण न था लू-लपटों से भरा॥1॥ प्रखर-कर-निकर को समेट कर शान्त बन। द

70

भाग -2

8 जून 2022
0
0
0

तिलोकी जब कुश का बहु-गौरव-मय गाना रुका। वर-मृदंग-वादन तब वे करने लगे॥ तंत्री-स्वर में निज हृतंत्री को मिला। यह पद गाकर प्रेम रंग में लव रँगे॥15॥ पद जय जय रघुकुल-कमल-दिवाकर। मर्यादा-पुरुषो

71

भाग -3

8 जून 2022
0
0
0

अवधपुरी में आयोजन है हो रहा- अश्व-मेध का, कार्यों की है अधिकता॥ इसीलिए मैं आज जा रहा हूँ वहाँ। पूरा द्वादश-वत्सर मधुपुर में बिता॥21॥ साम-नीति सब सुनीतियों की भित्ति है। पर सुख-साधय नहीं है उसकी

72

सप्तदश सर्ग / भाग -1

8 जून 2022
0
0
0

जन-स्थान छन्द : तिलोकी पहन हरित-परिधान प्रभूत-प्रफुल्ल हो। ऊँचे उठ जो रहे व्योम को चूमते॥ ऐसे बहुश:- विटप-वृन्द अवलोकते। जन-स्थान में रघुकुल-रवि थे घूमते॥1॥ थी सम्मुख कोसों तक फैली छबिमयी।

73

भाग - 2

8 जून 2022
0
0
0

बारह बरस व्यतीत हुए उनके यहीं। किन्तु कभी आकुलता होती थी नहीं॥ कभी म्लानता मुखड़े पर आती न थी। जब अवलोका विकसित-बदना वे रहीं॥21॥ और सहारा क्या था फल, दल के सिवा। था जंगल का वास वस्तु होती गिनी॥

74

भाग -3

8 जून 2022
0
0
0

यदि प्रसन्न-चित से मेरी बातें समझ। वे कुलपति के आश्रम में जातीं नहीं॥ वहाँ त्याग की मूर्ति दया की पूर्ति बन। जो निज दिव्य-गुणों को दिखलातीं नहीं॥41॥ जो घबरातीं विरह-व्यथायें सोचकर। मम-उत्तरदायि

75

भाग -4

8 जून 2022
0
0
0

वास्तव में वे पतिप्राणा हैं मैं उन्हें। चन्द्रवदन की चकोरिका हूँ जानती॥ हैं उनके सर्वस्व आप ही मैं उन्हें। प्रेम के सलिल की सफरी हूँ मानती॥61॥ रोमांचित-तन हुआ कलेजा हिल गया। दृग के सम्मुख उड़ी

76

अष्टदश सर्ग / भाग -1

8 जून 2022
0
0
0

स्वर्गारोहण छन्द : तिलोकी शीत-काल था वाष्पमय बना व्योम था। अवनी-तल में था प्रभूत-कुहरा भरा॥ प्रकृति-वधूटी रही मलिन-वसना बनी। प्राची सकती थी न खोल मुँह मुसकुरा॥1॥ ऊषा आयी किन्तु विहँस पाई नही

77

भाग -2

8 जून 2022
0
0
0

राजभवन के तोरण पर कमनीयतम। नौबत बड़े मधुर-स्वर से थी बज रही॥ उसके सम्मुख जो अति-विस्तृत-भूमि थी। मनोहारिता-हाथों से थी सज रही॥16॥ जो विशालतम-मण्डप उसपर था बना। धीरे-धीरे वह सशान्ति था भर रहा॥

78

भाग -3

8 जून 2022
0
0
0

कुश-लव का श्यामावदात सुन्दर-बदन। रघुकुल-पुंगव सी उनकी-कमनीयता॥ मातृ-भक्ति-रुचि वेश-वसन की विशदता। परम-सरलता मनोभाव-रमणीयता॥31॥ मधुर-हँसी मोहिनी-मूर्ति मृदुतामयी। कान्ति-इन्दु सी दिन-मणि सी तेजस

79

भाग -4

8 जून 2022
0
0
0

तपस्विनी-छात्राओं के उद्वोधा से। दिव्य ज्योति- बल-से-बल सका प्रदीप वह॥ जिससे तिमिर-विदूरित बहु-घर के हुए। लाख-लाख मुखड़ों की लाली सकी रह॥46॥ ऋषि, महर्षियों, विबुधों, कवियों, सज्जनों। हृदयों में

---

किताब पढ़िए