अवधपुरी में आयोजन है हो रहा-
अश्व-मेध का, कार्यों की है अधिकता॥
इसीलिए मैं आज जा रहा हूँ वहाँ।
पूरा द्वादश-वत्सर मधुपुर में बिता॥21॥
साम-नीति सब सुनीतियों की भित्ति है।
पर सुख-साधय नहीं है उसकी साधना॥
लोक-रंजिनी-नीति भी सुगम है नहीं।
है गहना गतिमती लोक-अराधना॥22॥
भिन्न-भाव-रुचि-प्रकृति-भावना से भरित।
विविध विचाराचार आदि से संकलित॥
होती है जनता-ममता त्रिगुणात्मिका।
काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, से आकुलित॥23॥
उसका संचालन नियमन या संयमन।
विविध-परिस्थिति देश, काल अवलोक कर॥
करते रहना सदा सफलता के सहित।
सुलभ है न प्राय: दुस्तर है अधिकतर॥24॥
यह दुस्तरता तब बनती है बहु-जटिल।
जब होता है दानवता का सामना॥
विफला बनती है जब दमन-प्रवृत्ति से।
लोकाराधन की कमनीया कामना॥25॥
द्वादश-वत्सर बीत गये तो क्या हुआ।
रघुकुल-पुंगव-कीर्ति अधिक-उज्ज्वल बनी।
राम-राज्य-गगनांगण में है आज दिन।
चरम-शान्ति की तनी चारुतम-चाँदनी॥26॥
वाल्मीकाश्रम में, जो विद्या-केन्द्र है।
बारह-वत्सर तक रह जाना आपका॥
सिध्द हुआ उपकारक है भव के लिए।
शमन हुआ उससे पापीजन-पाप का॥27॥
जितने छात्रा वहाँ की शिक्षा प्राप्त कर।
जिस विभाग में भारत-भूतल के गए॥
वहीं उन्होंने गाये वे गुण आपके।
पूत-भाव जिनमें हैं भूरि-भरे हुए॥28॥
तपस्विनी-आश्रम में मधुपुर से कई-
कन्यायें मैंने भेजी सद्वंशजा॥
कुछ दनकुल की दुहितायें भी साथ थीं।
जिनमें से थी एक लवण की अंगजा॥29॥
वर-विद्यायें पढ़ कुछ वर्ष व्यतीत कर।
जब वे सब विदुषी बन आयीं मधुपुरी॥
सत्कुल की कन्याओं की तो बात क्या।
दनुज-सुतायें भी थीं सद्भावों भरी॥30॥
आपकी सदाशयता की बातें कहे।
किसी काल में तृप्ति उन्हें होती न थी॥
विरह-व्यथा की कथा करुण-स्वर से सुना।
लवणासुर की कन्या कब रोती न थी॥31॥
सच यह है इस समय की चरम-शान्ति का।
श्रेय इस पुनीताश्रम को है कम नहीं॥
ज्योति यहाँ जो विदुषी-विदुषों को मिली।
तम उसके सम्मुख सकता था थम नहीं॥32॥
सत्कुल के छात्रों अथवा छात्रियों ने।
जैसे गौरव-गरिमा गाई आपकी॥
वैसा ही स्वर दनुज-छात्रियों का रहा।
कैसे इति होती न अखिल-परिताप की॥33॥
देवि! आपका त्याग, तपोबल, आत्मबल।
पातिव्रत का परिपालन, संयम, नियम॥
सहज-सरलता, दयालुता, हितकारिता।
लोक-रंजिनी नीति-प्रीति है दिव्यतम॥34॥
अत: पुण्य-बल से अशान्ति विदलित हुई।
हुआ प्रपंच-जनित अपवादों का कदन॥
बल, विद्या-सम्पन्न सर्व-गुण अलंकृत।
मिले आपको दिव्य-देवताओं से सुअन॥35॥
जैसे आश्रम-वास आपका हो सका।
शान्ति-स्थापन कर वर-साधन दिव्य बन॥
वैसे ही उसने दैनिक-बल से किया।
कुश-लव-सदृश अलौकिक सुअनों का सृजन॥36॥
कुलपति के दर्शन कर मैं आया यहाँ।
उनसे मुझको ज्ञात हुई यह बात है॥
शीघ्र जाएँगे अवध आपके सहित वे।
अब वियोग-रजनी का निकट प्रभात है॥37॥
कुछ पुलकित, कुछ व्यथित बन सती ने कहा।
शान्ति-स्थापन का भवदीय प्रयत्न भी॥
है महान, है रघुकुल-गौरव-गौरवित।
भरा हुआ है उसमें अद्भुत-त्याग भी॥38॥
मेरा आश्रम-वास वैध था, उचित था।
किया आपने जो वह भी कर्तव्य था॥
किन्तु एक दो नहीं द्विदश-वत्सर विरह।
आपकी प्रिया की विचित्र भवितव्य था॥39॥
विधि-विधान में होती निष्ठुरता न जो।
तो श्रुति-कीर्ति परिस्थिति होती दूसरी॥
नियति-नीति में रहती निर्दयता न जो।
तो अबला बनती न तरंगित-निधि-तरी॥40॥
प्रकृति रहस्यों का पाया किसने पता।
व्याह का समय आह रहा कैसा समय॥
जो मुझको उर्मिला तथा श्रुति-कीर्ति को।
मिला देखने को ऐसा विरहाभिनय॥41॥
किन्तु दु:खमय ए घटनायें लोकहित।
भव-हित वसुधा-हित के यदि साधन बनीं॥
तो वे कैसे शिरोधार्य होंगी नहीं।
मंगलमयी न कैसे जायेंगी गिनी॥42॥
जैसे शुभ सम्वाद सुनाकर आपने।
आज कृपा कर मुझे बनाया है मुदित॥
दर्शन देकर तुरत अवधपुर में पहुँच।
वैसे ही श्रुति-कीर्ति को बनायें सुखित॥43॥
दोहा
सीय-वचन सुन पग-परस पाकर मोद-अपार।
रिपुसूदन ने ली विदा पुत्रों को कर प्यार॥44॥