कहने लगीं सिते! सीता भी।
क्या तुम जैसी ही शुचि होगी॥
क्या तुम जैसी ही उसमें भी।
भव-हित-रता दिव्य-रुचि होगी॥21॥
तमा-तमा है तमोमयी है।
भाव सपत्नी का है रखती॥
कभी तुमारी पूत-प्रीति की।
स्वाभाविकता नहीं परखती॥22॥
फिर भी 'राका-रजनी' कर तुम।
उसको दिव्य बना देती हो॥
कान्ति-हीन को कान्ति-मती कर।
कमनीयता दिखा देती हो॥23॥
जिसे नहीं हँसना आता है।
चारु-हासिनी वह बनती है॥
तुमको आलिंगन कर असिता।
स्वर्गिक-सितता में सनती है॥24॥
ताटंक
नभतल में यदि लसती हो तो,
भूतल में भी खिलती हो।
दिव्य-दिशा को करती हो तो,
विदिशा में भी मिलती हो॥25॥
बहु विकास विलसित हो वारिधि,
यदि पयोधि बन जाता है।
तो लघु से लघुतम सरवर भी,
तुमसे शोभा पाता है॥26॥
गिरि-समूह-शिखरों को यदि तुम,
मणि-मण्डित कर पाती हो।
छोटे-छोटे टीलों पर भी,
तो निज छटा दिखाती हो॥27॥
सुजला-सुफला-शस्य श्यामला,
भू जो भूषित होती है।
तुमसे सुधा लाभ कर तो मरु-
महि भी मरुता खोती है॥28॥
रम्य-नगर लघु-ग्राम वरविभा,
दोनों तुमसे पाते हैं।
राज-भवन हों या कुटीर, सब
कान्ति-मान बन जाते हैं॥29॥
तरु-दल हों प्रसून हों तृण हों,
सबको द्युति तुम देती हो।
औरों की क्या बात रजत-कण,
रज-कण को कर लेती हो॥30॥
घूम-घूम करके घनमाला,
रस बरसाती रहती है।
मृदुता सहित दिखाती उसमें,
द्रवण-शीलता महती है॥31॥
है जीवन-दायिनी कहाती,
ताप जगत का हरती है।
तरु से तृण तक का प्रतिपालन,
जल प्रदान कर करती है॥32॥
किन्तु महा-गर्जन-तर्जन कर,
कँपा कलेजा देती है।
गिरा-गिरा कर बिजली जीवन
कितनों का हर लेती है॥33॥
हिम-उपलों से हरी भरी,
खेती का नाश कराती है।
जल-प्लावन से नगर ग्राम,
पुर को बहु विकल बनाती है॥34॥
अत: सदाशयता तुम जैसी,
उसमें नहीं दिखाती है।
केवल सत्प्रवृत्ति ही उसमें,
मुझे नहीं मिल पाती है॥35॥
तुममें जैसी लोकोत्तरता,
सहज-स्निग्धाता मिलती है।
सदा तुमारी कृति-कलिका जिस-
अनुपमता से खिलती है॥36॥
वैसी अनुरंजनता शुचिता,
किसमें कहाँ दिखाती है।
केवल प्रियतम दिव्य-कीर्ति ही-
में वह पाई जाती है॥37॥
हाँ प्राय: वियोगिनी तुमसे,
व्यथिता बनती रहती है।
देख तुमारे जीवनधन को,
मर्म-वेदना सहती है॥38॥
यह उसका अन्तर-विकार है,
तुम तो सुख ही देती हो।
आलिंगन कर उसके कितने-
तापों को हर लेती हो॥39॥
यह निस्स्वार्थ सदाशयता यह,
वर-प्रवृत्ति पर-उपकारी।
दोष-रहित यह लोकाराधन,
यह उदारता अति-न्यारी॥40॥