रिपुसूदनागमन
छन्द : सखी
बादल थे नभ में छाये।
बदला था रंग समय का॥
थी प्रकृति भरी करुणा में।
कर उपचय मेघ-निचय का॥1॥
वे विविध-रूप धारण कर।
नभ-तल में घूम रहे थे॥
गिरि के ऊँचे शिखरों को।
गौरव से चूम रहे थे॥2॥
वे कभी स्वयं नग-सम बन।
थे अद्भुत-दृश्य दिखाते॥
कर कभी दुंदुभी-वादन।
चपला को रहे नचाते॥3॥
वे पहन कभी नीलाम्बर।
थे बड़े-मुग्धकर बनते॥
मुक्तावलि बलित अधर में।
अनुपम-वितान थे तनते॥4॥
बहुश:खण्डों में बँटकर।
चलते फिरते दिखलाते॥
वे कभी नभ-पयोनिधि के।
थे विपुल-पोत बन पाते॥5॥
वे रंग बिरंगे रवि की।
किरणों से थे बन जाते॥
वे कभी प्रकृति को विलसित।
नीली-साड़ियाँ पिन्हाते॥6॥
वे पवन तुरंगम पर चढ़।
थे दूनी-दौड़ लगाते॥
वे कभी धूप-छाया के।
वे छबिमय-दृश्य दिखाते॥7॥
घन कभी घेर दिन-मणि को।
थे इतनी घनता पाते॥
जो द्युति-विहीन कर, दिन को-
थे अमा-समान बनाते॥8॥
वे धूम-पुंज से फैले।
थे दिगन्त में दिखलाते॥
अंकस्थ-दामिनी दमके।
थे प्रचुर-प्रभा फैलाते॥9॥
सरिता सरोवरादिक में।
थे स्वर-लहरी उपजाते॥
वे कभी गिरा बहु-बूँदें।
थे नाना-वाद्य बजाते॥10॥
पावस सा प्रिय-ऋतु पाकर।
बन रही रसा थी सरसा॥
जीवन प्रदान करता था।
वर-सुधा सुधाधार बरसा॥11॥
थी दृष्टि जिधर फिर जाती।
हरियाली बहुत लुभाती॥
नाचते मयूर दिखाते।
अलि-अवली मिलती गाती॥12॥
थी घटा कभी घिर आती।
था कभी जल बरस जाता॥
थे जल्द कभी खुल जाते।
रवि कभी था निकल आता॥13॥
था मलिन कभी होता वह।
कुछ कान्ति कभी पा जाता॥
कज्जलित कभी बनता दिन।
उज्ज्वल था कभी दिखाता॥14॥
कर उसे मलिन-बसना फिर।
काली ओढ़नी ओढ़ाती॥
थी प्रकृति कभी वसुधा को।
उज्ज्वल-साटिका पिन्हाती॥15॥
जल-बिन्दु लसित दल-चय से।
बन बन बहु-कान्त-कलेवर॥
उत्फुल्ल स्नात-जन से थे।
हो सिक्त सलिल से तरुवर॥16॥
आ मंद-पवन के झोंके।
जब उनको गले लगाते॥
तब वे नितान्त-पुलकित हो।
थे मुक्तावलि बरसाते॥17॥
जब पड़ती हुई फुहारें।
फूलों को रहीं रिझाती॥
जब मचल-मचल मारुत से।
लतिकायें थीं लहराती॥18॥
छबि से उड़ते छीटे में।
जब खिल जाती थीं कलियाँ॥
चमकीली बूँदों को जब।
टपकातीं सुन्दर-फलियाँ॥19॥
जब फल रस से भर-भर कर।
था परम-सरस बन जाता॥
तब हरे-भरे कानन में।
था अजब समा दिखलाता॥20॥