नामकरण-संस्कार
छन्द : तिलोकी
शान्ति-निकेतन के समीप ही सामने।
जो देवालय था सुरपुर सा दिव्यतम॥
आज सुसज्जित हो वह सुमन-समूह से।
बना हुआ है परम-कान्त ऋतुकान्त-सम॥1॥
ब्रह्मचारियों का दल उसमें बैठकर।
मधुर-कंठ से वेद-ध्वनि है कर रहा॥
तपस्विनी सब दिव्य-गान गा रही हैं।
जन-जन-मानस में विनोद है भर रहा॥2॥
एक कुशासन पर कुलपति हैं राजते।
सुतों के सहित पास लसी हैं महिसुता॥
तपस्विनी-आश्रम-अधीश्वरी सजग रह।
बन-बन पुलकित हैं बहु-आयोजन-रता॥3॥
नामकरण-संस्कार क्रिया जब हो चुकी।
मुनिवर ने यह सादर महिजा से कहा॥
पुत्रि जनकजे! उन्हें प्राप्त वह हो गया।
रविकुल-रवि का चिरवांछित जो फल रहा॥4॥
कोख आपकी वह लोकोत्तर-खानि है।
जिसने कुल को लाल अलौकिक दो दिए॥
वे होंगे आलोक तम-बलित-पंथ के।
कुश-लव होंगे काल कश्मलों के लिए॥5॥
सकुशल उनका जन्म तपोवन में हुआ।
आशा है संस्कार सभी होंगे यहीं॥
सकल-कलाओं-विद्याओं से हो कलित।
विरहित होंगे वे अपूर्व-गुण से नहीं॥6॥
रिपुसूदन जिस दिवस पधारे थे यहाँ।
उसी दिवस उनके सुप्रसव ने लोक को॥
दी थी मंगलमय यह मंजुल-सूचना।
मधुर करेंगे वे अमधुर-मधु-ओक को॥7॥
मुझे ज्ञात यह बात हुई है आज ही।
हुआ लवण-वध हुए शत्रु-सूदन जयी॥
द्वन्द्व युध्द कर उसको मारा उन्होंने।
पाकर अनुपम-कीर्ति परम-गौरवमयी॥8॥
आशा है अब पूर्ण-शान्ति हो जायगी।
शीघ्र दूर होवेंगी बाधायें-अपर॥
हो जायेगा जन-जन-जीवन बहु-सुखित।
जायेगा अब घर-घर में आनन्द भर॥9॥
दसकंधार का प्रिय-संबंधी लवण था।
अल्प-सहायक-सहकारी उसके न थे॥
कई जनपदों में भी उसकी धाक थी।
बड़े सबल थे उसके प्रति-पालित जथे॥10॥
इसीलिए रघु-पुंगव ने रिपु-दमन को।
दी थी वर-वाहिनी वाहिनी-पति सहित॥
यथा काल हो जिससे दानव-दल-दलन।
हित करते हो सके नहीं भव का अहित॥11॥
किन्तु उन्हें जन-रक्तपात वांछित न था।
हुआ इसलिए वध दुरन्त-दनुजात का॥
आशा है अब अन्य उठाएँगे न शिर।
यथातथ्य हो गया शमन उत्पात का॥12॥
जो हलचल इन दिनों राज्य में थी मची।
उन्हें देख करके जितना ही था दुखित॥
देवि विलोके अन्त दनुज-दौरात्म्य का।
आज हो गया हूँ मैं उतना ही सुखित॥13॥
यदि आहव होता अनर्थ होते बड़े।
हो जाता पविपात लोक की शान्ति पर॥
वृथा परम-पीड़ित होती कितनी प्रजा।
काल का कवल बनता मधुपुर सा नगर॥14॥
किन्तु नृप-शिरोमणि की संयत-नीति ने।
करवाई वह क्रिया युक्ति-सत्तामयी॥
जिससे संकट टला अकंटक महि बनी।
हुई पूत-मानवता पशुता पर जयी॥15॥