कभी मधु-मधुरिमा से बनती छबिमयी।
कभी निछावर करती थी मुक्तावली॥
सजी-साटिका पहनाती थी अवनि को।
विविध-कुसुम-कुल-कलिता हरित-तृणावली॥21॥
दिये हरित-दल उन्हें लाल जोड़े मिलें।
या अनुरक्ति-अरुणिमा ऊपर आ गई।
लाल-लाल-फूलों से विपुल-पलाश के।
कानन में थी ललित-लालिमा छा गई॥22॥
उन्हें बड़े-सुन्दर-लिबास थे मिल गए।
छटा छिटिक थी रही बाँस-खूँटियों पर॥
आज बेल-बूटों से वे थीं विलसती।
टूटी पड़ती थी विभूति बूटियों पर॥23॥
सब दिन जिस पलने पर प्यारा-तन पला।
देती थी उसकी महती-कृति का पता॥
दिखा-दिखा कर हरीतिमा की मधुर-छबि।
नव-दूर्वा-दे महि को मोहक-श्यामता॥24॥
कोकिल की काकली तितिलियों का नटन।
खग-कुल-कूजन रंग-बिरंगी वन-लता॥
अजब-समा थी बाँध छबि पुंजता।
गुंजन-सहित मिलिन्द-वृन्द की मत्तता॥25॥
वर-बासर बरबस था मन को मोहता।
मलयानिल बहु-मुग्ध बना था परसता॥
थी चौगुनी चमकती निशि में चाँदनी।
सरसतम-सुधा रहा सुधाकर बरसता॥26॥
मधु-विकास में मूर्तिमान-सौन्दर्य था।
वांछित-छबि से बनी छबीली थी मही॥
पते-पते में प्रफुल्लता थी भरी।
वन में नर्तन विमुग्धता थी कर रही॥27॥
समय सुनाता वह उन्मादक-राग था।
जिसमें अभिमंत्रित-रसमय-स्वर थे भरे॥
भव-हृत्तांत्री के छिड़ते वे तार थे।
जिनकी ध्वनि सुन होते सूखे-तरु हरे॥28॥
सौरभ में थी ऐसी व्यापक-भूरिता।
तन वाले निज तन-सुधि जाते भूल थे॥
मोहकता-डाली हरियाली थी लिये।
फूले नहीं समाते फूले फूल थे॥29॥
शान्ति-निकेतन के सुन्दर-उद्यान में।
जनक-नन्दिनी सुतों-सहित थीं घूमती॥
उन्हें दिखाती थीं कुसुमावलि की छटा।
बार-बार उनके मुख को थीं चूमती॥30॥
था प्रभात का समय दिवस-मणि-दिव्यता।
अवनीतल को ज्योतिर्मय थी कर रही॥
आलिंगन कर विटप, लता, तृण, आदिका।
कान्तिमय-किरण कानन में थी भर रही॥31॥
युगल-सुअन थे पाँच साल के हो चले।
उन्हें बनाती थी प्रफुल्ल कुसुमावली॥
कभी तितिलियों के पीछे वे दौड़ते।
कभी किलकते सुन कोकिल की काकली॥32॥
ठुमुक-ठुमुक चल किसी फूल के पास जा।
विहँस विहँस थे तुतली-वाणी बोलते॥
टूटी-फूटी निज पदावली में उमग।
बार-बार थे सरस-सुधारस घोलते॥33॥
दिखा-दिखा कर श्याम-घटा की प्रिय-छटा।
दोनों-सुअनों से यह कहतीं महि-सुता॥
ऐसे ही श्यामावदात कमनीय-तन।
प्यारे पुत्रों तुम लोगों के हैं पिता॥34॥
कहतीं कभी विलोक गुलाब प्रसून की।
बहु-विमुग्ध-कारिणी विचित्र-प्रफुल्लता॥
हैं ऐसे ही विकच-बदन रघुवंश-मणि।
ऐसी ही है उनमें महा-मनोज्ञता॥35॥
नाम बताकर कुन्द, यूथिका आदि का।
दिखा रुचिरता कुसुम श्वेत-अवदात की॥
कहतीं ऐसी ही है कीर्ति समुज्ज्वला।
तुम दोनों प्रिय-भ्राताओं के तात की॥36॥
लोक-रंजिनी ललामता से लालिता।
दिखा जपा सुमनावलि की प्रिय-लालिमा॥
कहती थीं यह, तुम दोनों के जनक की।
ऐसी ही अनुरक्ति है रहित कालिमा॥37॥
हरित-नवल-दल में दिखला अंगजों को।
पीले-पीले कुसुमों की वर विकचता॥
कहती यह थीं ऐसा ही पति-देव के।
श्यामल-तन पर पीताम्बर है विलसता॥38॥
इस प्रकार जब जनक-नन्दिनी सुतों को।
आनन्दित कर पति-गुण-गण थीं गा रही॥
रीझ-रीझ कर उनके बाल-विनोद पर।
निज-वचनों से जब थीं उन्हें रिझा रही॥39॥
उसी समय विज्ञानवती आकर वहाँ।
शिशु-लीलायें अवलोकन करने लगी॥
रमणी-सुलभ-स्वभाव के वशीभूत हो।
उनके अनुरंजन के रंगों में रँगी॥40॥