बन्धुओं की सब बातें सुन।
सकल प्रस्तुत विषयों को ले॥
समझ, गंभीर गिरा द्वारा।
जानकी-जीवन-धन बोले॥81॥
राज पद कर्तव्यों का पथ।
गहन है, है अशान्ति आलय॥
क्रान्ति उसमें है दिखलाती।
भरा होता है उसमें भय॥82॥
इसी से साम-नीति ही को।
बुधों से प्रथम-स्थान मिला॥
यही है वह उद्यान जहाँ।
लोक आराधन सुमन खिला॥83॥
दमन या दण्ड नीति मुझको।
कभी भी रही नहीं प्यारी॥
न यद्यपि छोड़ सका उनको।
रहे जो इनके अधिकारी॥84॥
चतुष्पद
रहेगी भव में कैसे शान्ति।
क्रूरता किया करें जो क्रूर॥
तो हुआ लोकाराधन कहाँ।
लोक-कण्टक जो हुए न दूर॥85॥
लोक-हित संसृति-शान्ति निमित्त।
हुआ यद्यपि दुरन्त-संग्राम॥
किन्तु दशमुख, गन्धर्व-विनाश।
पातकों का ही था परिणाम॥86॥
है क्षमा-योग्य न अत्याचार।
उचित है दण्डनीय का दण्ड॥
निवारण करना है कर्तव्य।
किसी पाषण्डी का पाषण्ड॥87॥
आर्त्त लोगों का मार्मिक-कष्ट।
बहु-निरपराधों का संहार॥
बाल-वृध्दों का करुण-विलाप।
विवश-जनता का हाहाकार॥88॥
आहवों में जो हैं अनिवार्य।
मुझे करते हैं व्यथित नितान्त॥
भूल पाए मुझको अब भी न।
लंक के सकल-दृश्य दु:खान्त॥89॥
अत: है वांछनीय यह नीति।
हो यथा-शक्ति न शोणितपात॥
सामने रहे दृष्टि के साम।
रहे महि-वातावरण प्रशान्त॥90॥
विप्लवों के प्रशमन की शक्ति।
राज्य को पूर्णतया है प्राप्त॥
धाक उसकी बन शान्ति-निकेत।
सकल-भारत-भू में है व्याप्त॥91॥
अत: है इसकी आशंका न।
मचायेगी हलचल उत्पात॥
क्यों प्रजा-असन्तोष हो दूर।
सोचनी है इतनी ही बात॥92॥
दमन है मुझे कदापि न इष्ट।
क्योंकि वह है भय-मूलक-नीति॥
चाह है लाभ करूँ, कर त्याग।
प्रजा की सच्ची प्रीति-प्रतीति॥93॥
किसी सम्भावित की अपकीर्ति।
है रजनि-रंजन-अंक-कलंक॥
किन्तु है बुध-सम्मत यह उक्ति।
कब भला धुला पंक से पंक॥94॥
जनकजा में है दानव-द्रोह।
और मैं उनकी बातें मान॥
कराया करता हूँ यद्यपि।
लोक-संहार कृतान्त समान॥95॥
यह कथन है सर्वथा असत्य।
और है परम श्रवण-कटु-बात॥
किन्तु उसको करता है पुष्ट।
विपुल गंधर्वों पर पविपात॥96॥
पठन कर लोकाराधन-मन्त्र।
करूँगा मैं इसका प्रतिकार॥
साधकर जनहित-साधन सूत्र।
करूँगा घर-घर शान्ति-प्रसार॥97॥
बन्धु-गण के विचार विज्ञात-
हो गए, सुनीं उक्तियाँ सर्व॥
प्राप्त कर साम-नीति से सिध्दि।
बनेगा पावन जीवन-पर्व॥98॥
करूँगा बड़े से बड़ा त्याग।
आत्म-निग्रह का कर उपयोग॥
हुए आवश्यक जन-मुख देख।
सहूँगा प्रिया असह्य-वियोग॥99॥
मुझे यह है पूरा विश्वास।
लोक-हित-साधन में सब काल॥
रहेंगे आप लोग अनुकूल।
धर्म-तत्तवों पर ऑंखें डाल॥100॥
दोहा
इतना कह अनुजों सहित, त्याग मन्त्रणा-धाम।
विश्रामालय में गए, राम-लोक-विश्राम॥101॥