जिस पर सरस बरस जाने ही के लिए।
कोमल से भी कोमल कलित-कुसुम बने॥
उसको किसी विशिख से बन वे क्यों लगें।
रहे वचन जो सदा सुधारस में सने॥101॥
अकमनीय कैसे कमनीय प्रवृत्ति हो।
बड़ी चूक है उसे नहीं जो रोकती॥
कोई कोमल-हृदया प्रियतम को कभी।
कड़ी ऑंख से कैसे है अवलोकती॥102॥
जो न कण्ठ हो सकी पुनीत-गुणावली।
क्यों पाती न प्रवृत्ति कलहप्रियता पता॥
जो कटूक्ति के लिए हुई उत्कण्ठ तो।
क्यों कलंकिता बनेगी न कल-कंठता॥103॥
पहचाने पति के पद को मुँह से कभी।
निकल नहीं पाती अपुनीत-पदावली॥
सहज-मधुरता मानस के त्यागे बिना।
अमधुर बनती नहीं मधुर-वचनावली॥104॥
है कठोरता, काठ शिला से भी कठिन।
क्यों न प्रेम-धारायें ही उनमें बहें॥
कोमल हैं तो बनें अकोमल किसलिए।
क्यों न कलेजे बने कलेजे ही रहें॥105॥
जिसमें है न सहानुभूति-मर्मज्ञता।
सदा नहीं होता जो यथा-समय-सदय॥
जिसमें है न हृदय-धन की ममता भरी।
हृदय कहायेगा तो कैसे वह हृदय॥106॥
क्या गरिमा है रूप, रंग, गुण आदि की।
क्या इस भूति-भरित-भूमध्य निजस्व है॥
जो उत्सर्ग न उस पर जीवन हो सका।
जो इस जगती में जीवन-सर्वस्व है॥107॥
अवनी में जो जीवन का अवलम्ब है।
सबसे अधिक उसी पर जिसका प्यार है॥
वह पतिता है जो उससे है उलझती।
जिस पति का तन, मन, धन पर अधिकार है॥108॥
चूक उसी की है जो वल्लभता दिखा।
हृदय-वल्लभा का पद पा जाती नहीं॥
प्राणनाथ तो प्राणनाथ कैसे बनें।
पतिप्राणा यदि पत्नी बन पाती नहीं॥109॥
पढ़ तदीयता-पाठ भेद को भूल कर।
सत्य-भाव से पूत-प्रेम-प्याला पिये॥
बन जाती हैं जीवितेश्वरी पत्नियाँ।
जीवनधन को जीवनधन अर्पित किये॥110॥
भाग्यवती वह है भर सात्तिवक-भूति से।
भक्ति-बीज जो प्रीति-भूमि में बो सकी॥
वह सहृदयता है सहृदयता ही नहीं।
जो न समर्पित हृदयेश्वर को हो सकी॥111॥
पूजन कर सद्भाव-समूह-प्रसून से।
जगा आरती सत्कृति की बन सद्व्रता॥
दिव्य भावना बल से पाकर दिव्यता।
देवी का पद पाती है पति-देवता॥112॥
वहन कर सरस-सौरभ संयत-भाव का।
जो सरोजिनी सी हो भव-सर में खिली॥
वही सती है शुचि-प्रतीति से पूरिता।
जिसे पति-परायणता पूरी हो मिली॥113॥
उसका अधिकारी है सबसे अधिक पति।
सोच यह स्वकृति की करती जो पूर्ति हो॥
पतिव्रता का पद पा सकती है वही।
जीवितेश हित की जो जीवित मूर्ति हो॥114॥
सहज-सरलता, शुचिता, मृदुता सदयता-
आदि दिव्य गुण द्वारा जो हो ऊर्जिता॥
प्रीति सहित जो पति-पद को है पूजती।
भव में होती है वह पत्नी पूजिता॥115॥
लंका में मेरा जिन दिनों निवास था।
वहाँ विलोकी जो दाम्पत्य-विडम्बना॥
उसका ही परिणाम राज्य-विध्वंस था।
भयंकरी है संयम की अवमानना॥116॥
होता है यह उचित कि जब दम्पति खिजें।
सूत्रपात जब अनबन का होने लगे॥
उसी समय हो सावधन संयत बनें।
कलह-बीज जब बिगड़ा मन बोने लगे॥117॥
यदि चंचलता पत्नी दिखलाये अधिक।
पति तो कभी नहीं त्यागे गम्भीरता॥
उग्र हुए पति के पत्नी कोमल बने।
हो अधीर कोई भी तजे न धीरता॥118॥
तपे हुए की शीतलता है औषधि।
सहनशीलता कुल कलहों की है दवा॥
शान्त-चित्तता का अवलम्बन मिल गये।
प्रकृति-भिन्नता भी हो जाती है हवा॥119॥
कोई प्राणी दोष-रहित होता नहीं।
कितनी दुर्बलतायें उसमें हैं भरी॥
किन्तु सुधारे सब बातें हैं सुधरती।
भलाइयों ने सब बुराइयाँ हैं हरी॥120॥