बोले रिपुसूदन आर्य्ये।
हैं धीर धुरंधर प्रभुवर॥
नीतिज्ञ, न्यायरत, संयत।
लोकाराधन में तत्पर॥61॥
गुरु-भार उन्हीं पर सारे-
साम्राज्य-संयमन का है॥
तन मन से भव-हित-साधन।
व्रत उनके जीवन का है॥62॥
इस दुर्गम-तम कृति-पथ में।
थीं आप संगिनी ऐसी॥
वैसी तुरन्त थीं बनती।
प्रियतम-प्रवृत्ति हो जैसी॥63॥
आश्रम-निवास ही इसका।
सर्वोत्तम-उदाहरण है॥
यह है अनुरक्ति-अलौकिक।
भव-वन्दित सदाचरण है॥64॥
यदि रघुकुल-तिलक पुरुष हैं।
श्रीमती शक्ति हैं उनकी॥
जो प्रभुवर त्रिभुवन-पति हैं।
तो आप भक्ति हैं उनकी॥65॥
विश्रान्ति सामने आती।
तो बिरामदा थीं बनती॥
अनहित-आतप-अवलोके।
हित-वर-वितान थीं तनती॥66॥
थीं पूर्ति न्यूनताओं की।
मति-अवगति थीं कहलाती॥
आपही विपत्ति विलोके।
थीं परम-शान्ति बन पाती॥67॥
अतएव आप ही सोचें।
वे कितने होंगे विह्नल॥
पर धीर-धुरंधरता का।
नृपवर को है सच्चा-बल॥68॥
वे इतनी तन्मयता से।
कर्तव्यों को हैं करते॥
इस भावुकता से वे हैं।
बहु-सद्भावों से भरते॥69॥
इतने दृढ़ हैं कि बदन पर।
दुख-छाया नहीं दिखाती॥
कातरता सम्मुख आये।
कँप कर है कतरा जाती॥70॥
फिर भी तो हृदय हृदय है।
वेदना-रहित क्यों होगा॥
तज हृदय-वल्लभा को क्यों।
भव-सुख जायेगा भोगा॥71॥
जो सज्या-भवन सदा ही।
सबको हँसता दिखलाता॥
जिसको विलोक आनन्दित।
आनन्द स्वयं हो जाता॥72॥
जिसमें बहती रहती थी।
उल्लासमयी - रस - धारा॥
जो स्वरित बना करता था।
लोकोत्तर-स्वर के द्वारा॥73॥
इन दिनों करुण-रस से वह।
परिप्लावित है दिखलाता॥
अवलोक म्लानता उसकी।
ऑंखों में है जल आता॥74॥
अनुरंजन जो करते थे।
उनकी रंगत है बदली॥
है कान्ति-विहीन दिखाती।
अनुपम-रत्नों की अवली॥75॥
मन मारे बैठी उसमें।
है सुकृतिवती दिखलाती॥
जो गीत करुण-रस-पूरित।
प्राय: रो-रो है गाती॥76॥
हो गये महीनों उसमें।
जाते न तात को देखा॥
हैं खिंची न जाने उनके।
उर में कैसी दुख-रेखा॥77॥
बातें माताओं की मैं।
कहकर कैसे बतलाऊँ॥
उनकी सी ममता कैसे।
मैं शब्दों में भर पाऊँ॥78॥
मेरी आकुल-ऑंखों को।
कबतक वह कलपायेगी॥
उनको रट यही लगी है।
कब जनक-लली आयेगी॥79॥
आज्ञानुसार प्रभुवर के।
श्रीमती माण्डवी प्रतिदिन॥
भगिनियों, दासियों को ले।
उन सब कामों को गिन-गिन॥80॥