वेद-ध्वनि से मुखरित वातावरण था।
स्वर-लहरी स्वर्गिक-विभूति से थी भरी॥
अति-उदात्त कोमलतामय-आलाप था।
मंजुल-लय थी हृत्तांत्री झंकृत करी॥16॥
धीरे-धीरे तिमिर-पुंज था टल रहा।
रवि-स्वागत को उषासुन्दरी थी खड़ी॥
इसी समय सरयू-सरि-सरस-प्रवाह में।
एक दिव्यतम नौका दिखलाई पड़ी॥17॥
जब आकर अनुकूल-कूल पर वह लगी।
तब रघुवंश-विभूषण उस पर से उतर॥
परम-मन्द-गति से चलकर पहुँचे वहाँ।
आश्रम में थे जहाँ राजते ऋषि प्रवर॥18॥
रघुनन्दन को वन्दन करते देख कर।
मुनिवर ने उठ उनका अभिनन्दन किया॥
आशिष दे कर प्रेम सहित पूछी कुशल।
तदुपरान्त आदर से उचितासन दिया॥19॥
सौम्य-मूर्ति का सौम्य-भाव गम्भीर-मुख।
आश्रम का अवलोक शान्त-वातावरण॥
विनय-मूर्ति ने बहुत विनय से यह कहा।
निज-मर्यादित भावों का कर अनुसरण॥20॥
आपकी कृपा के बल से सब कुशल है।
सकल-लोक के हित व्रत में मैं हूँ निरत॥
प्रजा सुखित है शान्तिमयी है मेदिनी।
सहज-नीति रहती है सुकृतिरता सतत॥21॥
किन्तु राज्य का संचालन है जटिल-तम।
जगतीतल है विविध-प्रपंचों से भरा॥
है विचित्रता से जनता परिचालिता।
सदा रह सका कब सुख का पादप हरा॥22॥
इतना कह कर हंस-वंश-अवतंस ने।
दुर्मुख की सब बातें गुरु से कथन कीं॥
पुन: सुनाईं भ्रातृ-वृन्द की उक्तियाँ।
जो हित-पट पर मति-मृदु-कर से थीं अंकी॥23॥
तदुपरान्त यह कहा दमन वांछित नहीं।
साम-नीति अवलम्बनीय है अब मुझे॥
त्याग करूँ तब बड़े से बड़ा क्यों न मैं।
अंगीकृत है लोकाराधन जब मुझे॥24॥
हैं विदेहजा मूल लोक-अपवाद की।
तो कर दूँ मैं उन्हें न क्यों स्थानान्तरित॥
यद्यपि यह है बड़ी मर्म-वेधी-कथा।
तथा व्यथा है महती-निर्ममता-भरित॥25॥
किन्तु कसौटी है विपत्ति मनु-सूनु की।
स्वयं कष्ट सह भव-हित-साधन श्रेय है॥
आपत्काल, महत्व-परीक्षा-काल है।
संकट में धृति धर्म प्राणता ध्येय है॥26॥
ध्वंस नगर हों, लुटें लोग, उजड़े सदन।
गले कटें, उर छिदें, महा-उत्पात हो॥
वृथा मर्म-यातना विपुल-जनता सहे।
बाल वृध्द वनिता पर वज्र-निपात हो॥27॥
इन बातों से तो अब उत्तम है यही।
यदि बनती है बात, स्वयं मैं सब सहूँ॥
हो प्रियतमा वियोग, प्रिया व्यथिता बने।
तो भी जन-हित देख अविचलित-चित रहूँ॥28॥
प्रश्न यही है कहाँ उन्हें मैं भेज दूँ।
जहाँ शान्त उनका दुखमय जीवन रहे॥
जहाँ मिले वह बल जिसके अवलंब से।
मर्मान्तिक बहु-वेदन जाते हैं सहे॥29॥
आप कृपा कर क्या बतलाएँगे मुझे।
वह शुचि-थल जो सब प्रकार उपयुक्त हो॥
जहाँ बसी हो शान्ति लसी हो दिव्यता।
जो हो भूति-निकेतन भीति-विमुक्त हो॥30॥