अन्तराय ए साधन हैं ऐसे सबल।
जो प्राणी को हैं पचड़ों में डालते॥
पंच-भूत भी अल्प प्रपंची हैं नहीं।
वे भी कब हैं तम में दीपक बालते॥81॥
ऐसे अवसर पर प्राणी को बन प्रबल।
आत्म-शक्ति की शक्ति दिखाना चाहिए॥
सत्प्रवृत्ति से दुष्प्रवृत्तियों को दबा।
तम में अन्तज्योति-जगाना चाहिए॥82॥
सत्य है, प्रकृति होती है अति-बलवती।
किन्तु आत्मिक-सत्ता है उससे सबल॥
भौतिकता यदि करे भूतपन भूत बन।
क्यों न उसे आध्यात्मिकता तो दे मसल॥83॥
जिसमें सारी-सुख-लिप्सायें हों भरी।
जो परमित होवे आहार-विहार तक॥
उस प्रसून के ऐसा है तो प्रेम वह।
जिसमें मिले न रूप न रंग न तो महँक॥84॥
जिसमें लाग नहीं लगती है लगन की।
जिसमें डटकर प्रेम ने न ऑंचें सहीं॥
जिसमें सह सह साँसतें न स्थिरता रही।
कहते हैं दाम्पत्य-धर्म उसको नहीं॥85॥
जहाँ प्रेम सा दिव्य-दिवाकर है उदित।
कैसे दिखालायेगा तामस-तम वही॥
दम्पति को तो दम्पति कोई क्यों कहे।
जिसमें है दाम्पत्य-दिव्यता ही नहीं॥86॥
निज-प्रवाह में बहा अपावन-वृत्तियाँ।
जो न प्रेम धारायें उर में हों बही॥
तो दम्पति की हित-विधायिनी वासना।
पायेगी सुर-सरिता-पावनता नहीं॥87॥
जिसे तरंगित करता रहता है सदा।
मंजु सम्मिलन-शीतल-मृदुगामी अनिल॥
खिले मिले जिसमें सद्भावों के कमल।
है दम्पति का प्रेम वह सरोवर-सलिल॥88॥
उसमें है सात्तिवक-प्रवृत्ति-सुमनावली।
उसमें सुरतरु सा विलसित भव-क्षेम है॥
सकल-लोक अभिनन्दन-सुख-सौरभ-भरित।
नन्दन-वन सा अनुपम दम्पति-प्रेम है॥89॥
है सुन्दर-साधना कामना-पूर्ति की।
भरी हुई है उसमें शुचि-हितकारिता॥
है विधायिनी विधि-संगत वर-भूति की।
कल्पता सी दम्पति की सहकारिता॥90॥
है सद्भाव समूह धरातल के लिए।
सर्व-काल सेचन-रत पावस का जलद॥
फूला-फला मनोज्ञ कामप्रद कान्त-तन।
है दम्पति का प्रेम कल्पतरु सा फलद॥91॥
है विभिन्नता की हरती उद्भावना।
रहने देती नहीं अकान्त-अनेकता॥
है पयस्विनी-सदृश प्रकृत-प्रतिपालिका।
कामधोनु-कामद है दम्पति-एकता॥92॥
पूत-कलेवर दिव्य-देवतों के सदृश।
भूरि-भव्य-भावों का अनुपम-ओक है॥
वर-विवेक से सुरगुरु जिसमें हैं लसे।
दम्पति-प्रेम परम-पुनीत सुरलोक है॥93॥
मृदुल-उपादानों से बनिता है रचित।
हैं उसके सब अंग बड़े-कोमल बने॥
इसीलिए है कोमल उसका हृदय भी।
उसके कोमल-वचन सुधा में हैं सने॥94॥
पुरुष अकोमल-उपादान से है बना।
इसीलिए है उसे मिली दृढ़-चित्तता॥
बडे-पुष्ट होते हैं उसके अंग भी।
उसमें बल की भी होती है अधिकता॥95॥
जैसी ही जननी की कोमल-हृदयता।
है अभिलषिता है जन-जीवनदायिनी॥
वैसी ही पाता की बलवत्ता तथा।
दृढ़ता है वांछित, है विभव-विधायिनी॥96॥
है दाम्पत्य-विधान इसी विधि में बँधा।
दोनों का सहयोग परस्पर है ग्रथित॥
जो पौरुष का भाजन है कोई पुरुष।
तो कुल-बाला मूर्ति-शान्ति की है कथित॥97॥
अपर-अंग करता है पीड़ित-अंग-हित।
जो यह मति रह सकी नहीं चिर-संगिनी॥
कहाँ पुरुष में तो पौरुष पाया गया।
कहाँ बन सकी बनिता तो अर्धांगिनी॥98॥
किसी समय अवलोक पुरुष की परुषता।
कोमलता से काम न जो लेवे प्रिया॥
कहाँ बनी तो स्वाभाविकता-सहचरी।
काम मृदुल-उर ने न मृदुलता से लिया॥99॥
रस विहीन जिसको कहकर रसना बने।
ऐसी नीरस बातें क्यों जायें कही॥
कान्त के लिए यदि वे कड़वे बन गए।
कान्त-वचन में तो कान्तता कहाँ रही॥100॥