किसी चक्रवर्ती की पत्नी आप हैं।
या लालित हैं महामना मिथिलेश की॥
इस विचार से हैं न पूजिता वंदिता।
आप अर्चिता हैं अलौकिकादर्श से॥31॥
रत्न-जटिल-हिन्दोल में पली आप थीं।
प्यारी-पुत्तालिका थीं मैना दृगों की॥
मिथिलाधिप-कर-कमलों से थीं लालिता।
कुसुम से अधिक कोमलता थी पगों की॥32॥
कनक-रचित महलों में रहती थीं सदा।
चमर ढुला करता था प्राय: शीश पर॥
कुसुम-सेज थी दुग्ध-फेन-निभ-आस्तरण।
थीं विभूतियाँ अलकाधिपति-विमुग्धकर॥33॥
मुख अवलोकन करती रहती थीं सदा।
कौशल्या देवी तन मन, धन, वार कर॥
सब प्रकार के भव के सुख, कर-बध्द हो।
खड़े सामने रहते थे आठों पहर॥34॥
किन्तु देखकर जीवन-धन का वन-गमन।
आप भी बनी सब तज कर वन-वासिनी॥
एक-दो नहीं चौदह सालों तक रहीं।
प्रेम-निकेतन पति के साथ प्रवासिनी॥35॥
बन जाती थीं सकल भीतियाँ भूतियाँ।
कानन में आपदा सम्पदा सी सदा॥
आपके लिए प्रियतम प्रेम-प्रभाव से।
बनती थीं सुखदा कुवस्तुएँ दु:खदा॥36॥
पट्ट-वस्त्रा बन जाता था वल्कल-वसन।
साग पात में मिलता व्यंजन स्वाद था॥
कान्त साथ तृण-निर्मित साधारण उटज।
बहु-प्रसाद पूरित बनता प्रासाद था॥37॥
शीतल होता तप-ऋतु का उत्ताप था।
लू लपटें बन जाती थीं प्रात:-पवन॥
बनती थी पति साथ सेज सी साथरी।
सारे काँटे होते थे सुन्दर सुमन॥38॥
जीवन भर में छह महीने ही हुआ।
पति-वियोग उस समय जिस समय आपको॥
हरण किया था पामर-लंकाधिपति ने।
कर सहस्र-गुण पृथ्वी तल के पाप को॥39॥
किन्तु यह समय ही वह अद्भुत समय था।
हुई जिस समय ज्ञात महत्ता आपकी॥
प्रकृति ने महा-निर्मम बनकर जिस समय।
आपके महत-पातिव्रत की माप की॥40॥
वह रावण जिससे भूतल था काँपता।
एक वदन होते भी जो दश-वदन था॥
हो द्विबाहु जो विंशति बाहु कहा गया।
धृति शिर पर जो प्रबल वज्र का पतन था॥41॥
महा-घोर गर्जन तर्जन प्रतिवार कर।
दिखा-दिखा करवालें विद्युद्दाम सी॥
कर कर कुत्सित रीति कदर्य्य प्रवृत्ति से।
लोक प्रकम्पित करी क्रियायें तामसी॥42॥
रख त्रिलोक की भूमि प्रायश: सामने।
राज्य-विभव को चढ़ा-चढ़ा पद पद्म॥
न तो विकम्पित कभी कर सका आपको।
न तो कर सका वशीभूत बहु मुग्ध कर॥43॥
जिसकी परिखा रहा अगाध उदधि बना।
जिसका रक्षक स्वर्ग-विजेता-वीर था॥
जिसमें रहते थे दानव-कुल-अग्रणी।
जिसका कुलिशोपम अभेद्य-प्राचीर था॥44॥
जिसे देख कम्पित होते दिग्पाल थे।
पंचभूत जिसमें रहते भयभीत थे॥
कँपते थे जिसमें प्रवेश करते त्रिदश।
जहाँ प्रकृत-हित पशुता में उपनीत थे॥45॥