लव बोले आयेगा मुझको छीनने-
जो, मैं मारूँगा उसको दूँगा डरा॥
कहा जनकजा ने क्यों ऐसा करोगे।
इसीलिए न कि अनुचित करना है बुरा॥21॥
फिर तुम क्यों अनुचित करना चाहते हो।
कभी किसी को नहीं सताना चाहिए॥
उनके बच्चे हों अथवा हों मछलियाँ।
कभी नहीं उनको कलपाना चाहिए॥22॥
देखो वे हैं कितनी सुथरी सुन्दरी।
कैसा पुलकित हो हो वे हैं फिर रहीं॥
वहाँ गये उनका सुख होगा किरकिरा।
किन्तु पकड़ पाओगे उनको तुम नहीं॥23॥
जीव-जन्तु जितने जगती में हैं बने।
सबका भला किया करना ही है भला॥
निरअपराध को सता करें अपराध क्यों॥
वृथा किसी पर क्यों कोई लाये बला॥24॥
जल को विमल बनाती हैं ये मछलियाँ।
पूत-प्रेम का पाठ पढ़ाती हैं सदा॥
प्रियतम जल से बिछुड़े वे जीती नहीं।
किसी प्रेमिका पर क्यों आये आपदा॥25॥
इतना कहते जनक-नन्दिनी नयन में।
जल भर आया और कलेजा हिल गया॥
मानो व्याकुल बनी युगल-मछलियों को।
यथावसर अनुकूल-सलिल था मिल गया॥26॥
जल में जल से गुरु पदार्थ हैं डूबते।
माँ तुमने मुझसे हैं ए बातें कहीं॥
काठ कहा जाता है गुरुतर वारि से।
क्यों नौका जल में निमग्न होती नहीं॥27॥
सुने प्रश्न कुश का माता ने यह कहा।
बड़े बड़ाई को हैं कभी न भूलते॥
जल तरुओं को सींच-सींच है पालता।
उसके बल से वे हैं फलते-फूलते॥28॥
जब वे होते तप्त बनाता तर उन्हें।
जब होते निर्बल तब कर देता सबल॥
उसी की सरसता का अवलम्बन मिले।
अनुपम-रस पाते थे उनके सकल-फल॥29॥
वह जल देता क्यों उस नौका को डुबा।
जो तरु के तन द्वारा है निर्मित हुई॥
सदा एक रस रहती है उत्तम-प्रकृति।
तन-हित करती है तनबिन कर भी रुई॥30॥
है मुँह देखी प्रीति, प्रीति सच्ची नहीं।
वह होती है असम, स्वार्थ-साधन-रता॥
जीते जगती रह, है मरे न भूलती॥
पूत सलिल सी पूत-चित्त की पूतता॥31॥
जितने तरु प्रतिबिम्बित थे सरि-सलिल में।
उन्हें कुछ समय तक लव रहे विलोकते॥
फिर माता से पूछा क्या ए कूल द्रुम।
जल में अपना आनन हैं अवलोकते॥32॥
माँ बोलीं वे क्यों जल में मुँह देखते।
जो हैं ज्ञान-रहित जो जड़ता-धाम हैं॥
है छाया ग्रहिणी-शक्ति विमलाम्बु में।
तरु प्रतिबिम्बितकरण उसी का काम है॥33॥
सत्य बात सुत! मैंने बतला दी तुम्हें।
किन्तु क्रियायें तरु की हैं शिक्षा भरी॥
तुम लोगों को यही चाहिए सीख लो।
मिले जहाँ पर कोई शिक्षा हितकरी॥34॥
सरिता सेचन कर तरुओं का सलिल से।
हरा-भरा रखकर उनको है पालती॥
अवसर पर तर रख, कर शीतल तपन में।
जीवन से उनमें है जीवन डालती॥35॥
यथासमय तो उसको छाया-दान कर।
तरुवर भी उस पर बरसाते फूल हैं॥
उसके सुअनों को देते हैं सरस-फल।
सज्जित उनसे रहते उसके कूल हैं॥36॥
उपकारक के उपकारों को याद रख।
करते रहना अवसर पर प्रतिकार भी॥
है अति-उत्तम-कर्म्म, धर्म्म है लोक का।
हो कृतज्ञ, न बने अकृतज्ञ मनुज कभी॥37॥
यों भी तरु हैं लोक-हित निरत दीखते।
आतप में रह करते छाया-दान हैं॥
उनके जैसा फलद दूसरा कौन है।
सुर-शिर पर किनके फूलों का स्थान है॥38॥
हैं उनके पंचांग काम देते बहुत।
छबि दिखला वे किसे मुग्ध करते नहीं॥
लेते सिर पर भार नहीं जो वे उभर।
तो भूतल के विपुल उदर भरते नहीं॥39॥
है रसालता किसको मिली रसाल सी।
कौन गुलाब-प्रसूनों जैसा कब खिला॥
सबके हित के लिए झकोरे सहन कर।
कौन सब दिनों खड़ा एक पद से मिला॥40॥