बेले के अलबेलेपन में आज थी।
किसी बड़े-अलबेले की विलसी छटा॥
श्याम-घटा-कुसुमावलि श्यामलता मिले।
बनी हुई थी सावन की सरसा घटा॥31॥
यदि प्रफुल्ल हो हो कलिकायें कुन्द की।
मधुर हँस हँस कर थीं दाँत निकालती॥
आशा कर कमनीयतम-कर-स्पर्श की।
फूली नहीं समाती थी तो मालती॥32॥
बहु-कुसुमित हो बनी विकच-बदना रही।
यथातथ्य आमोदमयी हो यूथिका॥
किसी समागत के शुभ-स्वागत के लिए।
मँह मँह मँह मँह महक रही थी मल्लिका॥33॥
रंग जमाता लोक-लोचनों पर रहा।
चंपा का चंपई रंग बन चारुतर॥
अधिक लसित पाटल-प्रसून था हो गया।
किसी कुँवर अनुराग-राग से भूरि भर॥34॥
उल्लसिता दिखलाती थी शेफालिका।
कलिकाओं के बड़े-कान्त गहने पहन॥
पंथ किसी माधाव का थी अवलोकती।
मधु-ऋतु जैसी मुग्धकरी माधावी बन॥35॥
पहन हरिततम अपने प्रिय परिधान को।
था बंधूक ललाम प्रसूनों से लसा॥
बना रही थी जपा-लालिमा को ललित।
किसी लाल के अवलोकन की लालसा॥36॥
इसी बड़ी सुन्दर-फुलवारी में कुसुम-
चयन निरत दो-दिव्य मूर्तियाँ थीं लसी॥
जिनकी चितवन में थी अनुपम-चारुता।
सरस सुधा-रस से भी थी जिनकी हँसी॥37॥
एक रहे उन्नत-ललाट वर-विधु-बदन।
नव-नीरद-श्यामावदात नीरज-नयन॥
पीन-वक्ष आजान-बाहु मांसल-वपुष।
धीर-वीर अति-सौम्य सर्व-गौरव-सदन॥38॥
मणिमय-मुकुट-विमंडित कुण्डल-अलंकृत।
बहु-विधि मंजुल-मुक्तावलि-माला लसित॥
परमोत्ताम-परिधान-वान सौन्दर्य-धन।
लोकोत्तर-कमनीय-कलादिक-आकलित॥39॥
थे द्वितीय नयनाभिराम विकसित-बदन।
कनक-कान्ति माधुर्य-मूर्ति मंथन मथन॥
विविध-वर-वसन-लसित किरीटी-कुण्डली।
कर्म्म-परायण परम-तीव्र साहस-सदन॥40॥
दोनों राजकुमार मुग्ध हो हो छटा।
थे उत्फुल्ल-प्रसूनों को अवलोकते॥
उनके कोमल-सरस-चित्त प्राय: उन्हें।
विकच-कुसुम-चय चयन से रहे रोकते॥41॥
फिर भी पूजन के निमित्त गुरुदेव के।
उन लोगों ने थोड़े कुसुमों को चुना॥
इसी समय उपवन में कुछ ही दूर पर।
उनके कानों ने कलरव होता सुना॥42॥
राज-नन्दिनी गिरिजा-पूजन के लिए।
उपवन-पथ से मन्दिर में थीं जा रही॥
साथ में रहीं सुमुखी कई सहेलियाँ।
वे मंगलमय गीतों को थीं गा रही॥43॥
यह दल पहुँचा जब फुलवारी के निकट।
नियति ने नियत-समय-महत्ता दी दिखा॥
प्रकृति-लेखनी ने भावी के भाल पर।
सुन्दर-लेख ललिततम-भावों का लिखा॥44॥
राज-नन्दिनी तथा राज-नन्दन नयन।
मिले अचानक विपुल-विकच-सरसिज बने॥
बीज प्रेम का वपन हुआ तत्काल ही।
दो उर पावन-रसमय-भावों में सने॥45॥