यह थी विदुषी-ब्रह्मचारिणी प्रायश:।
मिलती रहती थी अवनी-नन्दिनी से॥
तर्क-वितर्क उठा बहु-बातें-हितकरी।
सीखा करती थी सत्पथ-संगिनी से॥41॥
आया देख उसे सादर महिसुता ने।
बैठाला फिर सत्यवती से यह कहा॥
आप कृपा कर लव-कुश को अवलोकिये।
अब न मुझे अवसर बहलाने का रहा॥42॥
समागता के पास बैठकर जनकजा।
बोलीं कैसे आज आप आईं यहाँ॥
मुसकाकर विज्ञानवती ने यह कहा।
उठने पर कुछ तर्क और जाऊँ कहाँ॥43॥
देवि! आत्म-सुख ही प्रधान है विश्व में।
किसे आत्म-गौरव अतिशय प्यारा नहीं॥
स्वार्थ सर्व-जन-जीवन का सर्वस्व है।
है हित-ज्योति-रहित अन्तर तारा नहीं॥44॥
भिन्न-प्रकृति से कभी प्रकृति मिलती नहीं।
अहंभाव है परिपूरित संसार में॥
काम, क्रोध, मद, लोभ, स्वर है भरा।
प्राणि मात्र के हृत्तांत्री के तार में॥45॥
है विवाह-बंधन ऐसा बंधन नहीं।
स्वाभाविकता जिसे तोड़ पाती नहीं॥
विविध-परिस्थितियाँ हैं ऐसी बलवती।
जिससे मुँह चितवृत्ति मोड़ पाती नहीं॥46॥
कृत्रिमता है उस कुंझटिका-सदृश जो।
नहीं ठहर पाती विभेद-रविकर परस॥
उससे कलुषित होती रहती है सुरुचि।
असरस बनता रहता है मानस-सरस॥47॥
है सच्चा-व्यवहार शुचि-हृदय का विभव।
प्रीति-प्रतीति-निकेत परस्परता-अयन॥
उर की ग्रंथि विमोचन में समधिक-निपुण।
परम-भव्य-मानस सद्भावों का भवन॥48॥
कृत्रिमता है कपट कुटिलता सहचरी।
मंजुल-मानसता की है अवमानना॥
सहज-सदाशयता पद-पूजन त्यागकर।
यह है करती प्रवंचना की अर्चना॥49॥
किन्तु देखती हूँ मैं यह बहु-घरों में।
सदाचरण से अन्यथाचरण है अधिक॥
कभी-कभी सुख-लिप्सादिक से बलित चित।
सत्प्रवृत्ति-हरिणी का बनता है बधिक॥50॥
भव-मंगल-कामना तथा स्थिति-हेतु से।
नर-नारी का नियति ने किया है सृजन॥
हैं अपूर्ण दोनों पर उनको पूर्णता।
है प्रदान करता दोनों का सम्मिलन॥51॥
प्राणी में ही नहीं, तृणों तक में यही।
अटल व्यवस्था दिखलाती है स्थापिता॥
जो बतलाती है विधि-नियम-अवाधाता।
अनुल्लंघनीयता तथा कृतकार्यता॥52॥
यदि यथेच्छ आहार-विहार-उपेत हो।
नर नारी जीवन, तो होगी अधिकता-
पशु-प्रवृत्ति की, औ उच्छृंखलता बढे।
होवेगी दुर्दशा-मर्दिता-मनुजता॥53॥
पशु-पक्षी के जोड़े भी हैं दीखते।
वे भी हैं दाम्पत्य-बन्धनों में बँधो॥
वांछनीय है नर-नारी की युग्मता।
सारे-मन्त्र इसी साधन से ही सधो॥54॥
इसीलिए है विधि-विवाह की पूततम।
निगमागम द्वारा है वह प्रतिपादिता॥
है द्विविधा हरती कर सुविधा का सृजन।
वह दे, वसुधा को दिव जैसी दिव्यता॥55॥
जिससे होते एक हैं मिले दो हृदय।
सरस-सुधा-धारायें सदनों में बहीं॥
भूमि-मान बनते हैं जिससे भुवन-जन।
वह विधान अभिनन्दित होगा क्यों नहीं॥56॥
कुल, कुटुम्ब, गृह जिससे है बहु-गौरवित।
सामाजिकता है जिससे सम्मानिता॥
महनीया जिससे मानवता हो सकी।
क्यों न बनेगी प्रथित प्रथा वह आद्रिता॥57॥
किन्तु प्रश्न यह है प्राय: जो विषमता।
होती रहती है मानसिक-प्रवृत्ति में॥
भ्रम, प्रमाद अथवा सुख-लिप्सा आदि से।
कैसे वह न घुसे दम्पति-अनुरक्ति में॥58॥
पति-देवता हुई हैं होंगी और हैं।
किन्तु सदा उनकी संख्या थोड़ी रही॥
मिलीं अधिकतर सांसारिकता में सधी।
कितनी करती हैं कृत्रिमता की कही॥59॥
मुझे ज्ञात है, है गुण-दोषमयी-प्रकृति।
किन्तु क्यों न उर में वे धारायें बहें॥
सकल-विषमताओं को जिनसे दूरकर।
होते भिन्न अभिन्न-हृदय दम्पति रहें॥60॥